विद्दा कोई भी हो, लौकिक या आध्यात्मिक, उसके सारतत्व को समझने के लिये गुरु की आवश्यकता होती है | विद्दा के विशेषज्ञ गुरु ही उसका बोध कराने में सक्षम और समर्थ होते हैं ।
गुरु के अभाव में अर्थवान विद्दाएँ भी अर्थहीन हो जाती हैं । इन विद्दाओं के सार और सत्य को न समझ सकने के कारण भटकन ही पल्ले पड़ती है । गुरु के अभाव में काले अक्षर जिंदगी में कालिमा ही फैलाते हैं लेकिन यदि गुरुकृपा साथ हो, तो ये काले अक्षर रोशनी के दिए बन जाते हैं
चीन में एक संत हुए हैं---- शिन-हुआ । इन्होने काफी दिन साधना की, विभिन्न शास्त्र और विद्दाएँ पढ़ीं परंतु चित को शांति न मिली । उन दिनों शिन-हुआ को भारी बेचैनी थी । अपनी बेचैनी के दिनों में उनकी मुलाकात बोधिधर्म से हुई । बोधिधर्म के सान्निध्य में, उनके संपर्क में एक पल में शिन-हुआ की सारी भ्रांतियाँ, समूची भटकन समाप्त हो गई । उनके मुख पर ज्ञान की अलौकिक दीप्ति छा गई ।
अपने जीवन की इस अनूठी घटना का उल्लेख शिन-हुआ ने अपने संस्मरण में किया है । उन्होंने अपने गुरु बोधिधर्म के वचनों का उल्लेख करते हुए लिखा है------ " विद्दाएँ और शास्त्र दीए के चित्र भर हैं । इनमे केवल दीए बनाने की विधि भर लिखी है । इन चित्रों को, विधियों को कितना भी पढ़ा जाये, रटा जाये, थोड़ा भी फायदा नहीं होता । दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती । अँधेरा जब गहराता है, तो शास्त्र और विद्दाओं में उल्लिखित दीए के चित्र थोड़ा भी काम नहीं आते, लेकिन सद्गुरु से मिलना जैसे जलते हुए, रोशनी को चारों ओर फैलाते हुए दीए से मिलना है । "
शिन-हुआ ने लिखा है कि उनका गुरु बोधिधर्म से मिलना ऐसे ही हुआ । वे कहते हैं कि प्रकाश-स्रोत सम्मुख हो तो अँधेरा कितनी देर टिका रह सकेगा । यह सद्गुरु की कृपा की अनुभूति है
जीवन में यह अनुभूति आये तो सभी विद्दाएँ, सारे शास्त्र अपने आप ही अपना रहस्य खोलने लगते हैं, गुरुकृपा से तत्वबोध होने लगता है । गुरुकृपा की महिमा ही ऐसी है ।
गुरु के अभाव में अर्थवान विद्दाएँ भी अर्थहीन हो जाती हैं । इन विद्दाओं के सार और सत्य को न समझ सकने के कारण भटकन ही पल्ले पड़ती है । गुरु के अभाव में काले अक्षर जिंदगी में कालिमा ही फैलाते हैं लेकिन यदि गुरुकृपा साथ हो, तो ये काले अक्षर रोशनी के दिए बन जाते हैं
चीन में एक संत हुए हैं---- शिन-हुआ । इन्होने काफी दिन साधना की, विभिन्न शास्त्र और विद्दाएँ पढ़ीं परंतु चित को शांति न मिली । उन दिनों शिन-हुआ को भारी बेचैनी थी । अपनी बेचैनी के दिनों में उनकी मुलाकात बोधिधर्म से हुई । बोधिधर्म के सान्निध्य में, उनके संपर्क में एक पल में शिन-हुआ की सारी भ्रांतियाँ, समूची भटकन समाप्त हो गई । उनके मुख पर ज्ञान की अलौकिक दीप्ति छा गई ।
अपने जीवन की इस अनूठी घटना का उल्लेख शिन-हुआ ने अपने संस्मरण में किया है । उन्होंने अपने गुरु बोधिधर्म के वचनों का उल्लेख करते हुए लिखा है------ " विद्दाएँ और शास्त्र दीए के चित्र भर हैं । इनमे केवल दीए बनाने की विधि भर लिखी है । इन चित्रों को, विधियों को कितना भी पढ़ा जाये, रटा जाये, थोड़ा भी फायदा नहीं होता । दीए के चित्र से रोशनी नहीं होती । अँधेरा जब गहराता है, तो शास्त्र और विद्दाओं में उल्लिखित दीए के चित्र थोड़ा भी काम नहीं आते, लेकिन सद्गुरु से मिलना जैसे जलते हुए, रोशनी को चारों ओर फैलाते हुए दीए से मिलना है । "
शिन-हुआ ने लिखा है कि उनका गुरु बोधिधर्म से मिलना ऐसे ही हुआ । वे कहते हैं कि प्रकाश-स्रोत सम्मुख हो तो अँधेरा कितनी देर टिका रह सकेगा । यह सद्गुरु की कृपा की अनुभूति है
जीवन में यह अनुभूति आये तो सभी विद्दाएँ, सारे शास्त्र अपने आप ही अपना रहस्य खोलने लगते हैं, गुरुकृपा से तत्वबोध होने लगता है । गुरुकृपा की महिमा ही ऐसी है ।
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