आज भ्रष्टाचार, पारिवारिक कलह, जातियों, धर्मो, भाषाओँ व संस्कृतियों में द्वेष बढ़ा हुआ है और बढ़ता ही जा रहा है | इनसानी जिंदगी के बुनियादी ढांचों में दीमक लग चुकी है । राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक ढांचे कहीं अंदर ही अंदर सड़-गल रहे हैं । कोई कितना ही इससे आँख मूंदे और कान बंद करे, पर जबरन इसकी झलकें दिखाई दे ही जाती हैं , घरों के आँगन से लेकर समूचे विश्व में अँधियारी विषाक्तता तेजी से फैलती जा रही है । यह विषाक्तता यदि बिना किसी रोक-टोक के बढ़ती चली जाये तो संपूर्ण समाप्ति के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचता । सामाजिक, आर्थिक, संस्कृतिक परिवर्तनों के लिये व्यापक जनजागरण एवं संघर्ष जरुरी है । सबसे पहले बदलाव जीवन शैली से शुरू करना होगा । सोच और द्रष्टिकोण को बदलना होगा । इस परिवर्तन की शुरुआत व्यक्ति को अपने अंदर से करनी होगी, क्योंकि जले हुए दीए ही दूसरे नये दीए जला सकते हैं, जो दीए बुझे हैं वे तो केवल अँधेरा ही फैला सकते हैं ।
व्यक्ति निर्माण------ परिवार निर्माण------ समाज निर्माण----- राष्ट्र निर्माण----- युग निर्माण
इसी क्रम में परिवर्तन संभव है ।
व्यक्ति निर्माण------ परिवार निर्माण------ समाज निर्माण----- राष्ट्र निर्माण----- युग निर्माण
इसी क्रम में परिवर्तन संभव है ।
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