खलील जिब्रान ने एक छोटी सी कथा लिखी है । इस कथा में उन्होंने लिखा है कि उनका एक मित्र अचानक एक दिन पागलखाने में रहने चला गया । जब वह उससे मिलने गया तो उसने देखा कि उसका वह मित्र पागलखाने के बाग में एक पेड़ के नीचे बैठा मुस्करा रहा था । पूछने पर उसने कहा----- " मैं यहाँ बड़े मजे से हूँ । मैं बाहर के उस बड़े पागलखाने को छोड़कर इस छोटे पागलखाने में शांति से हूँ । यहाँ पर कोई किसी को परेशान नहीं करता । किसी के व्यक्तित्व पर कोई मुखौटा नहीं है । जो जैसा है, वह वैसा है । न कोई आडंबर है, न कोई ढोंग । "
यह कहकर उसने खलील जिब्रान को आश्चर्य में डालते हुए कहा ------ " मैं यहाँ पर ध्यान सीख रहा हूँ, क्योंकि मैं जान गया हूँ कि ध्यान ही सभी तरह के पागलपन का स्थायी व कारगर उपचार है । यही सही विधि है, स्वयं को खोजने की और स्वस्थचित होने की । "
' ध्यान न हो तो जीवन में पागलपन स्वाभाविक है । '
यह कहकर उसने खलील जिब्रान को आश्चर्य में डालते हुए कहा ------ " मैं यहाँ पर ध्यान सीख रहा हूँ, क्योंकि मैं जान गया हूँ कि ध्यान ही सभी तरह के पागलपन का स्थायी व कारगर उपचार है । यही सही विधि है, स्वयं को खोजने की और स्वस्थचित होने की । "
' ध्यान न हो तो जीवन में पागलपन स्वाभाविक है । '
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