महर्षि पाणिनि उन महान व्यक्तियों में से थे जिनका ध्येय जीवन बिताना नहीं, उसे पराकाष्ठा तक काम में लाना होता है, और जों अपनी बूंद-बूंद क्षमता का सदुपयोग करने में जरा भी मुरब्बत नहीं करते । 'पाणिनि अष्टाध्यायी ' वह व्याकरणशास्त्र है जिसने युगों से बदलती आ रही भारतीय भाषा का संस्कार कर उसे एकरूपता के साथ स्थायित्व प्रदान किया ।
पाणिनि ने अपने इस महान कार्य से न केवल एक सर्वांगपूर्ण भाषा को ही जन्म दिया अपितु राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति को सदा-सर्वदा के लिए अक्षुण्ण बना दिया ।
आज तक संसार में असंख्य भाषाओँ का उदय-अस्त हुआ । केवल एक भाषा संस्कृत ही ऐसी है जो हजारों वर्षों से आज तक अपने एक रूप में चली आ रही है । संस्कृत से पूर्व देश में कोई एक ऐसी सार्वदेशिक भाषा नहीं थी, जिसके माध्यम से एक प्रदेश के लोग दूसरे प्रदेश के लोगों से विचार-विनिमय कर सकते, भारत का बहुमूल्य वाड्मय न जाने कितनी भाषाओँ में बिखरा पड़ा था ।
पाणिनि ने इस कमी का अनुभव किया और देश के सारे शब्द- भंडार को एक व्यवस्थित रूप में रखकर उनकी व्याख्या और अर्थ निश्चित करके एक नियमबद्ध भाषा का निर्माण करने का निश्चय किया । उन्हें पूर्ण विश्वास था कि जब वे शरीर के साथ अपने मन-मस्तिष्क को संपूर्ण रूप से नियोजित करके काम करना शुरू करेंगे तब उनकी क्रियाशीलता एक अविचल लगन के रूप में बढ़ती जायेगी । और फिर ऐसी दशा में काम के अपूर्ण रह जाने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
पाणिनि ने अपने उद्देश्य के अंतर्गत सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया । वे अपनी इस यात्रा में केवल नगरों में ही नहीं जन-पद, कस्बों तथा छोटे से छोटे गांवों तक में गये, वहां रहे और अध्ययन के साथ अर्थ, भाव और उच्चारण सहित अपार शब्द राशि संकलित की और लोगों से मिलकर, बात कर, गहरी से गहरी खोज में उतर कर एक-एक शब्द की व्युत्पति तथा उसके इतिहास का पता लगाया |
देश का अपार शब्द-भंडार इकट्ठा करके पाणिनि हिमालय के एक एकांत स्थान में जा बैठे, अब तक का सारा पुरुषार्थ उनके असली काम की तैयारी मात्र ही था, एक कुशल शिल्पी की भांति अब पाणिनि ने अपने उपकरण जमा कर लेने के बाद महाग्रन्थ की रचना शुरू कर दी ।
सर्वप्रथम उन्होंने उस विशाल शब्द संकलन को क्रम से वर्गों में बांटा, उनका परिष्कार किया, अर्थ एवं आकार निश्चित किया, प्रयोग के नियम बनाये और इस प्रकार एक व्यापक व्याकरण की रचना करके संस्कृत नाम की भाषा को जन्म दिया, जो उसी समय से भारत की राष्ट्रभाषा और सार्वदेशिक आचार-विचार का माध्यम मान ली गई । पाणिनि का व्याकरण शास्त्र आठ अध्यायों में विभक्त है अत: उसको अष्टाध्यायी कहा जाता है । उन्होंने शब्द निर्माण, विस्तार तथा रुपार्थ के परिवर्तन के उन सिद्धांतों की प्रतिष्ठा की कि जिनके आधार भाषा-विज्ञान का जन्म हुआ ।
महर्षि पाणिनि ने अपने नियम, संयम, प्रबुद्ध बुद्धि, अविचल मन और अखण्ड अध्ययन के बल पर भाषा-शास्त्र में क्रांति उपस्थित कर दी ।
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