' पाटलीपुत्र में जो स्थान सम्राट अशोक का और उज्जयिनी में विक्रमादित्य का है वही स्थान श्रीनगर में सुल्तान जैनुल आब्दीन का है । काश्मीर की जनता आज भी इस महान सुल्तान को
' बड़े शाह ' के नाम से याद करती है ।
सुल्तान जैनुल आब्दीन ने 1420 से 1470 तक 50 वर्ष राज्य किया, इनके शासनकाल में काश्मीर आपने गौरव तथा उत्कर्ष के चरम शिखर पर था । सुल्तान स्वयं फारसी, संस्कृत, तिब्बती और कश्मीरी इन चार भाषाओँ का पंडित था । संस्कृत और फारसी का कोई ऐसा ग्रन्थ न था जों सुल्तान के पुस्तकालय में न हो । सुल्तान ने एक अनुवाद विभाग खोला जिसमे काश्मीर के दिग्गज विद्वान संस्कृत के ग्रन्थों का फारसी में और फारसी के साहित्य का संस्कृत में अनुवाद करते थे । योगभट्ट नामक विद्वान को फिरदौसी का पूरा ' शाहनामा ' कंठस्थ था उसने संस्कृत में इसका अनुवाद किया । इसी तरह मुल्ला अहमद ने, जो फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, महाभारत और राजतरंगिनी जैसे विशालकाय ग्रन्थों का फारसी में सुन्दर अनुवाद किया ।
सुल्तान बहुत न्यायप्रिय व दयालु था, वह प्रजा के सुख-दुःख का पता लगाने रात को वेश बदल कर घूमा करता था । सुल्तान ने चोर, डाकुओं को मिलने वाले मृत्यु दण्ड को समाप्त कर उन्हें खेती, खान आदि उपयोगी कार्यों में लगाया ।
सुल्तान के शासनकाल में कला-कौशल की अभूतपूर्व उन्नति हुई । उनने यह नियम बना दिया था कि कोई भी विदेशी तब तक काश्मीर को छोड़ नहीं सकता जब तक लोगों को अपनी कला सिखा न जाये । सुल्तान ने प्रजा के कल्याण पार बहुत ध्यान दिया । कृषि की दशा सुधारने के लिए अनेक नहरें बनवायी | 1460 में काश्मीर घाटी में भयंकर हिमपात हुआ, हजारों व्यक्ति भूख से तड़प कर मरने लगे, लोगों ने अपनी जमीन, गहने आदि गिरवी रखकर अन्न खरीदा । तब इस संकट को देख सुल्तान ने सरकारी गोदामों के द्वार खोल दिए, सभी को मुफ्त अन्न बांटा जाने लगा । जब अकाल दूर हो गया तो सुल्तान ने विशेष आज्ञा निकाली कि कोई भी व्यापारी अन्न की कीमत के रूप में गिरवी रखी चल-अचल सम्पति पर अधिकार न करे, अन्न की सारी कीमत सरकारी खजाने से चुकाई जायेगी । इस प्रकार उस दयालु सुल्तान ने अपनी प्रजा का सारा ऋण खुद ही चुकाया ।
12 मई 1470 शुक्रवार को जब सुल्तान की मृत्यु हुई, उस दिन राज्य में किसी के घर चूल्हा नहीं जला । सारी प्रजा अपने पितृतुल्य सुल्तान के लिए रो रही थी ।
सुल्तान की कब्र के पत्थर पर उनकी इच्छानुसार पाली, संस्कृत और फारसी भाषाओँ में नाम व लेख खोदे गये । ये अक्षर आज भी उस दयालु सुल्तान की अमर-गाथा गा रहें हैं ।
' बड़े शाह ' के नाम से याद करती है ।
सुल्तान जैनुल आब्दीन ने 1420 से 1470 तक 50 वर्ष राज्य किया, इनके शासनकाल में काश्मीर आपने गौरव तथा उत्कर्ष के चरम शिखर पर था । सुल्तान स्वयं फारसी, संस्कृत, तिब्बती और कश्मीरी इन चार भाषाओँ का पंडित था । संस्कृत और फारसी का कोई ऐसा ग्रन्थ न था जों सुल्तान के पुस्तकालय में न हो । सुल्तान ने एक अनुवाद विभाग खोला जिसमे काश्मीर के दिग्गज विद्वान संस्कृत के ग्रन्थों का फारसी में और फारसी के साहित्य का संस्कृत में अनुवाद करते थे । योगभट्ट नामक विद्वान को फिरदौसी का पूरा ' शाहनामा ' कंठस्थ था उसने संस्कृत में इसका अनुवाद किया । इसी तरह मुल्ला अहमद ने, जो फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे, महाभारत और राजतरंगिनी जैसे विशालकाय ग्रन्थों का फारसी में सुन्दर अनुवाद किया ।
सुल्तान बहुत न्यायप्रिय व दयालु था, वह प्रजा के सुख-दुःख का पता लगाने रात को वेश बदल कर घूमा करता था । सुल्तान ने चोर, डाकुओं को मिलने वाले मृत्यु दण्ड को समाप्त कर उन्हें खेती, खान आदि उपयोगी कार्यों में लगाया ।
सुल्तान के शासनकाल में कला-कौशल की अभूतपूर्व उन्नति हुई । उनने यह नियम बना दिया था कि कोई भी विदेशी तब तक काश्मीर को छोड़ नहीं सकता जब तक लोगों को अपनी कला सिखा न जाये । सुल्तान ने प्रजा के कल्याण पार बहुत ध्यान दिया । कृषि की दशा सुधारने के लिए अनेक नहरें बनवायी | 1460 में काश्मीर घाटी में भयंकर हिमपात हुआ, हजारों व्यक्ति भूख से तड़प कर मरने लगे, लोगों ने अपनी जमीन, गहने आदि गिरवी रखकर अन्न खरीदा । तब इस संकट को देख सुल्तान ने सरकारी गोदामों के द्वार खोल दिए, सभी को मुफ्त अन्न बांटा जाने लगा । जब अकाल दूर हो गया तो सुल्तान ने विशेष आज्ञा निकाली कि कोई भी व्यापारी अन्न की कीमत के रूप में गिरवी रखी चल-अचल सम्पति पर अधिकार न करे, अन्न की सारी कीमत सरकारी खजाने से चुकाई जायेगी । इस प्रकार उस दयालु सुल्तान ने अपनी प्रजा का सारा ऋण खुद ही चुकाया ।
12 मई 1470 शुक्रवार को जब सुल्तान की मृत्यु हुई, उस दिन राज्य में किसी के घर चूल्हा नहीं जला । सारी प्रजा अपने पितृतुल्य सुल्तान के लिए रो रही थी ।
सुल्तान की कब्र के पत्थर पर उनकी इच्छानुसार पाली, संस्कृत और फारसी भाषाओँ में नाम व लेख खोदे गये । ये अक्षर आज भी उस दयालु सुल्तान की अमर-गाथा गा रहें हैं ।
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