विज्ञान ने मनुष्य के आगे सुख - सुविधाओं की झड़ी लगा दी लेकिन चेतना के स्तर पर वह वही है , जहाँ कि वह आदिम युग में था । जब मनुष्य रोटी के एक टुकड़े के लिए अपने भाई का क़त्ल कर देता था और इंच भर जमीन के लिए अपने से कमजोर व्यक्तियों को गाजर - मूली की तरह काट देता था ।
औद्दोगिक विकास के क्षेत्र में सफल होने के बाद मनुष्य को यह भ्रम होने लगा कि वह सर्वशक्तिमान है , संसार के सभी प्राणियों में सर्वोच्च है और मत्स्य न्याय के अनुसार उसे अपने से कमजोर लोगों को चट कर डालने का पूरा अधिकार है । शक्ति और साधन के अहंकार ने मनुष्य की आस्था को चोट पहुंचाई और धर्म , जो मनुष्य को नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता था वही विद्वेष और विध्वंस का कारण बन गया ।
अब समाज और मानवता के प्रति साहित्यकार और कलाकार का विशेष दायित्व है जो समाज की मानसिकता को नए संस्कार देकर उन्नत बनता है उसके नए स्वरुप की स्रष्टि करता है ।
' मनुष्य को अपने मनुष्य होने के कार्य को प्राथमिकता देनी चाहिए । '
औद्दोगिक विकास के क्षेत्र में सफल होने के बाद मनुष्य को यह भ्रम होने लगा कि वह सर्वशक्तिमान है , संसार के सभी प्राणियों में सर्वोच्च है और मत्स्य न्याय के अनुसार उसे अपने से कमजोर लोगों को चट कर डालने का पूरा अधिकार है । शक्ति और साधन के अहंकार ने मनुष्य की आस्था को चोट पहुंचाई और धर्म , जो मनुष्य को नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता था वही विद्वेष और विध्वंस का कारण बन गया ।
अब समाज और मानवता के प्रति साहित्यकार और कलाकार का विशेष दायित्व है जो समाज की मानसिकता को नए संस्कार देकर उन्नत बनता है उसके नए स्वरुप की स्रष्टि करता है ।
' मनुष्य को अपने मनुष्य होने के कार्य को प्राथमिकता देनी चाहिए । '
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