उनका कहना था --- " साधु का सारा जीवन समाज के लिए ही नियोजित होना चाहिए । समाज पर भार बनकर जीने वाला साधु नहीं कहला सकता । साधु की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है । "
यह उन्होंने मुँह से कहकर नहीं जीवन जी कर बताया । वे सच्चे अर्थों में साधु थे , धर्म व्यवसायी साधु बाबा नहीं ।
टी. एल. वास्वानी के बचपन में ही पिता चल बसे । सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों में इन्होने एम. ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया । बड़ी मेहनत के बाद लाहौर कॉलेज के प्राचार्य बने | अपने वेतन का अधिकांश वे साधनहीन विद्दार्थियों को बाँट देते थे । माँ की मृत्यु के बाद उन्होंने प्राचार्य पद से त्यागपत्र दे दिया । वे समाज व देश के लिए जीना चाहते थे ।
ये भारतीय प्रतिनिधि के रूप में उन्ही दिनों बर्लिन में होने वाले विश्व धर्म सम्मलेन में सम्मिलित हुए । वहां उन्होंने अंग्रेजी में जो भाषण दिया तो लोग इनकी प्रतिभा और भारतीय संस्कृति के उदात्त रूप से बहुत प्रभावित हुए । अपनी पुस्तकों , लेखों और परिपत्रों के माध्यम से उन्होंने सोये भारतीयों को जगाने का सराहनीय प्रयास किया । उन्होंने देहरादून , मंसूरी मार्ग पर स्थित राजपुर ग्राम में एक ' शान्ति आश्रम ' की स्थापना की , इसका कार्य ऐसे प्रशिक्षित लोकसेवियों की सेना तैयार करना था , जो समाज में नयी चेतना उत्पन्न करने में सहायक हों ।
सिन्ध में भी उन्होंने शान्ति आश्रम और ' मीरा शिक्षण ' की स्थापना की । जब देश आजाद हुआ तो वे भारत आ गये और उन्होंने पुन: पूना में ' शान्ति आश्रम ' और ' मीरा शिक्षण ' की स्थापना की । और ' मीरा ' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया ।
' ईस्ट एंड वेस्ट ' नामक ग्रंथमाला के अंतर्गत उन्होंने देश - विदेश के प्रबुद्ध वर्ग को भारतीय संस्कृति का अनुगामी बनाने के लिए अंग्रेजी तथा सिन्धी भाषा में लगभग 150 पुस्तकें लिखीं । उन्होंने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा , योग्यता तथा श्रम का सदुपयोग राष्ट्रहित में किया |
यह उन्होंने मुँह से कहकर नहीं जीवन जी कर बताया । वे सच्चे अर्थों में साधु थे , धर्म व्यवसायी साधु बाबा नहीं ।
टी. एल. वास्वानी के बचपन में ही पिता चल बसे । सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों में इन्होने एम. ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया । बड़ी मेहनत के बाद लाहौर कॉलेज के प्राचार्य बने | अपने वेतन का अधिकांश वे साधनहीन विद्दार्थियों को बाँट देते थे । माँ की मृत्यु के बाद उन्होंने प्राचार्य पद से त्यागपत्र दे दिया । वे समाज व देश के लिए जीना चाहते थे ।
ये भारतीय प्रतिनिधि के रूप में उन्ही दिनों बर्लिन में होने वाले विश्व धर्म सम्मलेन में सम्मिलित हुए । वहां उन्होंने अंग्रेजी में जो भाषण दिया तो लोग इनकी प्रतिभा और भारतीय संस्कृति के उदात्त रूप से बहुत प्रभावित हुए । अपनी पुस्तकों , लेखों और परिपत्रों के माध्यम से उन्होंने सोये भारतीयों को जगाने का सराहनीय प्रयास किया । उन्होंने देहरादून , मंसूरी मार्ग पर स्थित राजपुर ग्राम में एक ' शान्ति आश्रम ' की स्थापना की , इसका कार्य ऐसे प्रशिक्षित लोकसेवियों की सेना तैयार करना था , जो समाज में नयी चेतना उत्पन्न करने में सहायक हों ।
सिन्ध में भी उन्होंने शान्ति आश्रम और ' मीरा शिक्षण ' की स्थापना की । जब देश आजाद हुआ तो वे भारत आ गये और उन्होंने पुन: पूना में ' शान्ति आश्रम ' और ' मीरा शिक्षण ' की स्थापना की । और ' मीरा ' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया ।
' ईस्ट एंड वेस्ट ' नामक ग्रंथमाला के अंतर्गत उन्होंने देश - विदेश के प्रबुद्ध वर्ग को भारतीय संस्कृति का अनुगामी बनाने के लिए अंग्रेजी तथा सिन्धी भाषा में लगभग 150 पुस्तकें लिखीं । उन्होंने अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा , योग्यता तथा श्रम का सदुपयोग राष्ट्रहित में किया |
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