' वे अपनी आत्मा की पुकार पर देश सेवा के व्रती हुए थे और जब तक इस कार्य को किया अपना पवित्र धार्मिक कर्तव्य समझकर किया l यही कारण है कि केवल सात - आठ वर्ष कार्य करने का अवसर मिलने पर भी उन्होंने वह कार्य कर दिखाया , जिससे उनका नाम अमर हो गया और उनकी गणना आधुनिक भारत के निर्माताओं में की जाने लगी l '
अप्रैल 1917 में कलकत्ता में होने वाले ' बंगला प्रादेशिक सम्मलेन ' का अध्यक्ष दास बाबू को निर्वाचित किया गया l इस सम्मलेन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया उसमे सबसे मुख्य बात यह थी कि राष्ट्र की वास्तविक मनोवृति को पहचान कर उन्होंने राजनैतिक आन्दोलनकारियों को चेतावनी दी थी कि वे भारत की अन्तरंग आत्मा को न पहचान कर यूरोप की नकल कर रहे हैं l उन्होंने कहा --- " अपने देश में विदेशी राज्य पनपने के साथ - साथ हमने यूरोप की कुछ बुराइयों को अपना लिया और हम अपने सरल और उत्साहमय जीवन को त्याग कर सुख और विलासिता के जीवन में डूब गये l हमारे सभी राजनीतिक आन्दोलन यथार्थता से दूर हैं , क्योंकि इसमें उन लोगों का कोई हाथ नहीं , जो इस देश की असली रीढ़ हैं । " उनका आशय था --- भारत के किसान , मजदूर और सामान्य जनता से l
वे जानते थे कि उनके जागृत हुए बिना न तो कोई आन्दोलन शक्तिशाली बन सकता है और न देश का सच्चा कल्याण कर सकता है l उनकी यह भावना इतनी गहरी और सच्ची थी कि उन्होंने जब महात्मा गांधी को जन समुदाय को साथ लेकर आन्दोलन करते देखा तो तुरंत अपना सर्वस्व समर्पण कर उसमे सम्मिलित हो गये ।
श्री दास का उक्त भाषण इतना महत्वपूर्ण था कि बंगाल के तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर लार्ड रोनाल्डशे
ने अपनी पुस्तक ' दि हार्ट ऑफ आर्यावर्त ' में उसकी चर्चा करते हुए लिखा था --- " श्री दास ने जो कुछ कहा , वास्तव में एक मिशनरी के उत्साह से कहा l यूरोपीय आदर्श रूपी स्वर्ण पशु की उन्होंने धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं और एक ऋषि के समान देश को उन्नति का रास्ता दिखाया । "
दास बाबू भारतीय धर्म और अध्यात्म के मर्म को पुर्ण रूप से समझते थे l उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था ----- " कृत्रिम अंग्रेजियत हमारे मार्ग में बाधा बन गई है । उसके कलुषित पद - चिन्ह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं कार्य में द्रष्टिगोचर होते हैं -- दान जैसे शुभ कार्य के लिए नाटकों और अन्य मनोरंजनों का विक्रय कर रहे हैं , अनाथालयों की सहायता के लिए लाटरी निकालते हैं , हम अपने पहनावे , विचार , भावनाओं तथा संस्कृति सभी द्रष्टियों से मिश्रित किस्म के हो गये हैं | संभव है पाश्चात्य आदर्शों के अनुकरण के इस उन्माद में एक दिन हम यह भी भूल जाएँ कि धन केवल साध्य है , साधन नहीं | "
अप्रैल 1917 में कलकत्ता में होने वाले ' बंगला प्रादेशिक सम्मलेन ' का अध्यक्ष दास बाबू को निर्वाचित किया गया l इस सम्मलेन के अध्यक्ष पद से उन्होंने जो भाषण दिया उसमे सबसे मुख्य बात यह थी कि राष्ट्र की वास्तविक मनोवृति को पहचान कर उन्होंने राजनैतिक आन्दोलनकारियों को चेतावनी दी थी कि वे भारत की अन्तरंग आत्मा को न पहचान कर यूरोप की नकल कर रहे हैं l उन्होंने कहा --- " अपने देश में विदेशी राज्य पनपने के साथ - साथ हमने यूरोप की कुछ बुराइयों को अपना लिया और हम अपने सरल और उत्साहमय जीवन को त्याग कर सुख और विलासिता के जीवन में डूब गये l हमारे सभी राजनीतिक आन्दोलन यथार्थता से दूर हैं , क्योंकि इसमें उन लोगों का कोई हाथ नहीं , जो इस देश की असली रीढ़ हैं । " उनका आशय था --- भारत के किसान , मजदूर और सामान्य जनता से l
वे जानते थे कि उनके जागृत हुए बिना न तो कोई आन्दोलन शक्तिशाली बन सकता है और न देश का सच्चा कल्याण कर सकता है l उनकी यह भावना इतनी गहरी और सच्ची थी कि उन्होंने जब महात्मा गांधी को जन समुदाय को साथ लेकर आन्दोलन करते देखा तो तुरंत अपना सर्वस्व समर्पण कर उसमे सम्मिलित हो गये ।
श्री दास का उक्त भाषण इतना महत्वपूर्ण था कि बंगाल के तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर लार्ड रोनाल्डशे
ने अपनी पुस्तक ' दि हार्ट ऑफ आर्यावर्त ' में उसकी चर्चा करते हुए लिखा था --- " श्री दास ने जो कुछ कहा , वास्तव में एक मिशनरी के उत्साह से कहा l यूरोपीय आदर्श रूपी स्वर्ण पशु की उन्होंने धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं और एक ऋषि के समान देश को उन्नति का रास्ता दिखाया । "
दास बाबू भारतीय धर्म और अध्यात्म के मर्म को पुर्ण रूप से समझते थे l उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था ----- " कृत्रिम अंग्रेजियत हमारे मार्ग में बाधा बन गई है । उसके कलुषित पद - चिन्ह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं कार्य में द्रष्टिगोचर होते हैं -- दान जैसे शुभ कार्य के लिए नाटकों और अन्य मनोरंजनों का विक्रय कर रहे हैं , अनाथालयों की सहायता के लिए लाटरी निकालते हैं , हम अपने पहनावे , विचार , भावनाओं तथा संस्कृति सभी द्रष्टियों से मिश्रित किस्म के हो गये हैं | संभव है पाश्चात्य आदर्शों के अनुकरण के इस उन्माद में एक दिन हम यह भी भूल जाएँ कि धन केवल साध्य है , साधन नहीं | "
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