महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी ---- इन महापुरुषों के व्यक्तित्व और कर्तव्य को काल की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता , ये चिरंतन हैं । अमर हैं । आज भी और हर काल में भी ये नाम उतने ही प्रभामय और प्रेरक रहेंगे ।
समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को समझाया ---- " शिवाजी ! तू बल की उपासना कर , बुद्धि को पूज , संकल्पवान बन और चरित्र की द्रढ़ता को अपने जीवन में उतार , यही तेरी ईश्वर भक्ति है । भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप , हिंसा , अनैतिकता और अनाचार के यवनी कुचक्र से लोहा लेने और भगवान् की स्रष्टि को सुन्दर बनाने के लिए इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है । "
शिवाजी ने दृढ किन्तु विनीत भाव से कहा ----- " आज्ञा शिरोधार्य देव ! किन्तु यह तो गुरु दीक्षा हुई , अब गुरु - दक्षिणा का का आदेश दीजिये । "
गुरु की आँखें चमक उठीं । शिवाजी के शीश पर हाथ फेरते हुए बोले ----- " गुरु - दक्षिणा में मुझे एक लाख शिवाजी चाहिए , बोल देगा ? "
" दूँगा गुरुदेव ! एक वर्ष एक दिन में ही यह गुरु - दक्षिणा चुका दूँगा । "
इतना कहकर शिवाजी ने गुरुदेव की चरण धूलि ली और महाराष्ट्र के निर्माण में जुट गए ।
जीवन विकास में सहायक गुणों ----- स्फूर्ति , उत्साह , तत्परता , श्रमशीलता , नियम , संयम , उपासना -- आदि गुणों को शिवाजी ने अलंकारों की तरह धारण किया हुआ था । इसके साथ ही व्यवहार कुशलता , अनुशासन , वाक्पटुता जैसे गुणों और योग्यता के बल पर जागीर के सारे तरुण नवयुवक तथा किशोर अपने अनुयायी बना लिए । उन्होंने स्थान - स्थान पर इनके संगठन तथा स्वयं सेवक दल बना दिए । समय - समय पर वे उनको शस्त्रों तथा देश प्रेम की शिक्षा देते । उन्होंने स्थान - स्थान पर देश की रक्षा के लिए सामग्री एकत्रित करने के लिए भण्डार - भवनों की स्थापना की और उनकी देखरेख व प्रबंध व्यवस्था के लिए कार्यकारिणी बनाई ।
शिवाजी ने बहुत से चुने हुए साथियों की एक स्वयं सैनिक सेना बनाकर युद्ध , व्यूह तथा उन्हें सञ्चालन का व्यवहारिक अभ्यास कर लिया । वे लोगों को स्वयं शस्त्र तथा युद्ध की शिक्षा देते थे और सेना के लिए आवश्यक अनुशासन का अभ्यास कराते थे ।
लगातार 36 वर्ष तक वन - पर्वत एक करके अनेकानेक युद्ध करके सशक्त महाराष्ट्र की स्थापना का स्वप्न साकार किया । उन्होंने अपने समय के एक युगपुरुष की भूमिका निभायी ।
समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को समझाया ---- " शिवाजी ! तू बल की उपासना कर , बुद्धि को पूज , संकल्पवान बन और चरित्र की द्रढ़ता को अपने जीवन में उतार , यही तेरी ईश्वर भक्ति है । भारतवर्ष में बढ़ रहे पाप , हिंसा , अनैतिकता और अनाचार के यवनी कुचक्र से लोहा लेने और भगवान् की स्रष्टि को सुन्दर बनाने के लिए इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है । "
शिवाजी ने दृढ किन्तु विनीत भाव से कहा ----- " आज्ञा शिरोधार्य देव ! किन्तु यह तो गुरु दीक्षा हुई , अब गुरु - दक्षिणा का का आदेश दीजिये । "
गुरु की आँखें चमक उठीं । शिवाजी के शीश पर हाथ फेरते हुए बोले ----- " गुरु - दक्षिणा में मुझे एक लाख शिवाजी चाहिए , बोल देगा ? "
" दूँगा गुरुदेव ! एक वर्ष एक दिन में ही यह गुरु - दक्षिणा चुका दूँगा । "
इतना कहकर शिवाजी ने गुरुदेव की चरण धूलि ली और महाराष्ट्र के निर्माण में जुट गए ।
जीवन विकास में सहायक गुणों ----- स्फूर्ति , उत्साह , तत्परता , श्रमशीलता , नियम , संयम , उपासना -- आदि गुणों को शिवाजी ने अलंकारों की तरह धारण किया हुआ था । इसके साथ ही व्यवहार कुशलता , अनुशासन , वाक्पटुता जैसे गुणों और योग्यता के बल पर जागीर के सारे तरुण नवयुवक तथा किशोर अपने अनुयायी बना लिए । उन्होंने स्थान - स्थान पर इनके संगठन तथा स्वयं सेवक दल बना दिए । समय - समय पर वे उनको शस्त्रों तथा देश प्रेम की शिक्षा देते । उन्होंने स्थान - स्थान पर देश की रक्षा के लिए सामग्री एकत्रित करने के लिए भण्डार - भवनों की स्थापना की और उनकी देखरेख व प्रबंध व्यवस्था के लिए कार्यकारिणी बनाई ।
शिवाजी ने बहुत से चुने हुए साथियों की एक स्वयं सैनिक सेना बनाकर युद्ध , व्यूह तथा उन्हें सञ्चालन का व्यवहारिक अभ्यास कर लिया । वे लोगों को स्वयं शस्त्र तथा युद्ध की शिक्षा देते थे और सेना के लिए आवश्यक अनुशासन का अभ्यास कराते थे ।
लगातार 36 वर्ष तक वन - पर्वत एक करके अनेकानेक युद्ध करके सशक्त महाराष्ट्र की स्थापना का स्वप्न साकार किया । उन्होंने अपने समय के एक युगपुरुष की भूमिका निभायी ।
Good work
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