सत्य और अहिंसा के उपासक डॉ. मार्टिन लूथर किंग की आयु जब बारह - तेरह वर्ष की थी तभी से वे गोरों द्वारा हब्शियों पर किये जाने वाले अन्यायों को देखने और समझने लगे थे l जब स्कूल का कोई बदमाश लड़का किंग को थप्पड़ मार देता तो वह उसका बदला लेने के लिए उस पर हाथ नहीं उठाते थे l एक दुकान में गोरी स्त्री ने उन्हें चपत लगा दी और अपशब्द कहे l किंग ने कुछ कहा नहीं , बस ! निर्भय भाव से उसकी और देखते रहे l ऐसे अवसरों पर वह बिना बोले मन ही मन उनका जोरदार प्रतिकार का उपाय सोचा करते थे l उनकी दादी कहा करती थीं ---- ' किंग की बाहरी शान्ति के नीचे एक अग्नि प्रज्ज्वलित रहती है l "
उन्होंने कारखानों में भी अपने परिचितों , गरीब लोगों के साथ अन्याय का व्यवहार होते देखा l इससे उनको विश्वास हो गया कि जातिगत अन्याय और आर्थिक - अन्याय दोनों आपस में मिले - जुले चलते हैं l
डॉ. किंग ने देखा कि अब से सौ वर्ष पूर्व एक महान अमेरिकन अब्राहम लिंकन के प्रयास और आत्म - बलिदान से उनको कानूनी गुलामी से मुक्ति मिल गई , फिर भी अमेरिका की दक्षिणी रियासतों में गोरे अधिकारियों का नीग्रो के साथ व्यवहार बहुत ही अन्यायपूर्ण और अमानवीय था l एक घटना है , उनके आन्दोलनकारी जीवन का प्रथम अध्याय ------- एक नीग्रो युवती जिसका नाम था रोजपार्क बस में बैठी जा रही थी l रास्ते में कुछ गोरे यात्री चढ़े , उन्होंने इन नीग्रो को पीछे की सीट पर जाने को कहा l तीन यात्री तो चले गए किन्तु रोजापार्क नहीं उठी तो उसे गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया और उस पर 10 डालर जुर्माना लगा l नीग्रो पर अत्याचार और अपमान तो अनगिनत बार इससे भी अधिक हो चुका था किन्तु अब इन पद - दलित लोगों में स्वाभिमान की भावना जाग्रत हो गई थी l सबने संगठित रूप से बसों के बहिष्कार का निश्चय किया l उस दिन मोंट्गुमरी की सड़कों पर विचित्र द्रश्य था l हजारों नीग्रो खच्चरों या घोड़ों से , हजारों पैदल व निजी मोटरों से कार्यालय जा रहे थे एक भी व्यक्ति ने ' बस ' में पैर नहीं रखा l नीग्रो नेताओं के अध्यक्ष थे -- डॉ. मार्टिन लूथर किंग l मोंटगुमरी के गोरे अधिकारियों ने हड़ताल को समाप्त करने का , उन लोगों में फूट डालने का हर संभव प्रयत्न किया l डॉ. किंग का एक जवाब था ---- जब तक भेदभाव की नीति का अंत नहीं जायेगा तब तक कोई व्यक्ति बसों में नहीं चढ़ेगा l यह हड़ताल एक वर्ष चली l एक वर्ष तक हानि उठाने के पश्चात् बस - कंपनी ने नीग्रो लोगों की मांगे स्वीकार की तब बहिष्कार का अंत हो सका l
इस आन्दोलन के बीच श्री किंग को कितने ही खतरों का सामना करना पड़ा , ' अहिंसात्मक असहयोग ' का रास्ता आत्मसंयम और परमेश्वर पर भरोसा रखकर आगे बढ़ते जाने का होता है l अपने सजातीयों से उन्होंने कहा था ---- " अपना न्याययुक्त स्थान प्राप्त करने में हमको किसी दूषित कर्म का अपराधी नहीं बनना चाहिए , अपनी स्वाधीनता की प्यास को बुझाने के लिए हमें विद्वेष और घ्रणा का प्याला नहीं पी लेना चाहिए l "
उन्होंने कारखानों में भी अपने परिचितों , गरीब लोगों के साथ अन्याय का व्यवहार होते देखा l इससे उनको विश्वास हो गया कि जातिगत अन्याय और आर्थिक - अन्याय दोनों आपस में मिले - जुले चलते हैं l
डॉ. किंग ने देखा कि अब से सौ वर्ष पूर्व एक महान अमेरिकन अब्राहम लिंकन के प्रयास और आत्म - बलिदान से उनको कानूनी गुलामी से मुक्ति मिल गई , फिर भी अमेरिका की दक्षिणी रियासतों में गोरे अधिकारियों का नीग्रो के साथ व्यवहार बहुत ही अन्यायपूर्ण और अमानवीय था l एक घटना है , उनके आन्दोलनकारी जीवन का प्रथम अध्याय ------- एक नीग्रो युवती जिसका नाम था रोजपार्क बस में बैठी जा रही थी l रास्ते में कुछ गोरे यात्री चढ़े , उन्होंने इन नीग्रो को पीछे की सीट पर जाने को कहा l तीन यात्री तो चले गए किन्तु रोजापार्क नहीं उठी तो उसे गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया और उस पर 10 डालर जुर्माना लगा l नीग्रो पर अत्याचार और अपमान तो अनगिनत बार इससे भी अधिक हो चुका था किन्तु अब इन पद - दलित लोगों में स्वाभिमान की भावना जाग्रत हो गई थी l सबने संगठित रूप से बसों के बहिष्कार का निश्चय किया l उस दिन मोंट्गुमरी की सड़कों पर विचित्र द्रश्य था l हजारों नीग्रो खच्चरों या घोड़ों से , हजारों पैदल व निजी मोटरों से कार्यालय जा रहे थे एक भी व्यक्ति ने ' बस ' में पैर नहीं रखा l नीग्रो नेताओं के अध्यक्ष थे -- डॉ. मार्टिन लूथर किंग l मोंटगुमरी के गोरे अधिकारियों ने हड़ताल को समाप्त करने का , उन लोगों में फूट डालने का हर संभव प्रयत्न किया l डॉ. किंग का एक जवाब था ---- जब तक भेदभाव की नीति का अंत नहीं जायेगा तब तक कोई व्यक्ति बसों में नहीं चढ़ेगा l यह हड़ताल एक वर्ष चली l एक वर्ष तक हानि उठाने के पश्चात् बस - कंपनी ने नीग्रो लोगों की मांगे स्वीकार की तब बहिष्कार का अंत हो सका l
इस आन्दोलन के बीच श्री किंग को कितने ही खतरों का सामना करना पड़ा , ' अहिंसात्मक असहयोग ' का रास्ता आत्मसंयम और परमेश्वर पर भरोसा रखकर आगे बढ़ते जाने का होता है l अपने सजातीयों से उन्होंने कहा था ---- " अपना न्याययुक्त स्थान प्राप्त करने में हमको किसी दूषित कर्म का अपराधी नहीं बनना चाहिए , अपनी स्वाधीनता की प्यास को बुझाने के लिए हमें विद्वेष और घ्रणा का प्याला नहीं पी लेना चाहिए l "
No comments:
Post a Comment