तक्षशिला के राजा आम्भीक के निमंत्रण प र सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया l जहाँ आम्भीक जैसे देशद्रोही थे वहां अनेक देशभक्त राजा भी थे l इन राजाओं में देश भक्ति की भावनाएं तो थीं किन्तु एकता की बुद्धि का सर्वथा अभाव था l पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने अपने वाड्मय ' महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग ' में पृष्ठ 1. 35 पर लिखा है ----- " सिकंदर के विरोधी होने पर भी वे आपसी विरोध को भुला न सके l किसी एक राष्ट्र के कर्णधारों में परस्पर प्रेम रहने से ही कल्याण की संभावनाएं सुरक्षित रहा करती हैं , फिर भी यदि उनमे किसी कारण से मनोमालिन्य रहेगा , तब भी किसी संक्रामक समय में उन्हें आपसी भेदभाव मिटाकर एक संगठित शक्ति से ही संकट का सामना करना श्रेयस्कर होता है अन्यथा आया हुआ संकट अलग - अलग सबको नष्ट कर देता है l "
देशद्रोही आम्भीक को देखकर अन्य राजा भी देशद्रोही बनते जा रहे थे l जब कोई पापी किसी मर्यादा की रेखा उल्लंघन कर उदाहरण बन जाता है , तब अनेकों को उसका उल्लंघन करने में अधिक संकोच नहीं रहता l
भारत के प्रवेश द्वार पर , एकमात्र प्रहरी के रूप में महाराज पुरु रह गए थे l अनेक अभागे राजा सिकंदर की सहायता करते हुए उसकी विजयों में अपने लाभ का भाग देखने लगे थे l
जब तक पुरु जैसे वीर भारत- भूमि पर पैदा होते रहेंगे , इसकी गौरव पताका युग - युग तक आकाश में फहराती रहेगी l
देशद्रोही आम्भीक को देखकर अन्य राजा भी देशद्रोही बनते जा रहे थे l जब कोई पापी किसी मर्यादा की रेखा उल्लंघन कर उदाहरण बन जाता है , तब अनेकों को उसका उल्लंघन करने में अधिक संकोच नहीं रहता l
भारत के प्रवेश द्वार पर , एकमात्र प्रहरी के रूप में महाराज पुरु रह गए थे l अनेक अभागे राजा सिकंदर की सहायता करते हुए उसकी विजयों में अपने लाभ का भाग देखने लगे थे l
जब तक पुरु जैसे वीर भारत- भूमि पर पैदा होते रहेंगे , इसकी गौरव पताका युग - युग तक आकाश में फहराती रहेगी l
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