पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने वाड्मय ' विश्व वसुधा जिनकी सदा ऋणी रहेगी ' में लिखा है ----" सचमुच दीन दुर्बल वे नहीं जो गरीब अथवा कमजोर हैं वरन वे हैं जो कौड़ियों के मोल अपने ईमान को बेचते हैं , प्रलोभनों में फंसकर अपने व्यक्तित्व का वजन गिराते हैं l तात्कालिक लाभ देखने वाले व्यक्ति उस अदूरदर्शी मक्खी की तरह हैं , जो चासनी के लोभ को संवरण न कर पाने से उसके भीतर जा गिरती है तथा बेमौत मरती है l मृत्यु शरीर की ही नहीं व्यक्तित्व की भी होती है l गिरावट भी मृत्यु है l "
क्रान्तिकारी विचारों का जनक होने के कारण प्रसिद्ध विचारक कार्ल मार्क्स को फ्रांस तथा जर्मनी दोनों ही देशों से निकलना पड़ा l वे परिवार सहित लन्दन में जा बसे , यहीं उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ
' दास कैपिटल ' की रचना की l लन्दन प्रवास के दौरान मार्क्स को घोर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा l उनके दो बच्चे गरीबी व भूख के कारण मर गए , किराया न देने के कारण मकान मालिक ने उन्हें घर से निकाल दिया l रोटी के लिए बिस्तर व वस्त्र तक बेचने पड़े l इन सब कठिनाइयों के बावजूद मजदूरों के बीच बोलने , उनका संगठन खड़ा करने और अपने विचारों को लिपिबद्ध करने का क्रम चलता रहा l उन दिनों जर्मनी में बिस्मार्क का प्रभुत्व था , उसे डर था कि यदि मार्क्स के विचार फैल गए तो जर्मनी में पूंजीवाद की नींव सदा के लिए उखड़ जाएगी l इसलिए बिस्मार्क ने अप्रत्यक्ष रूप से रिश्वत देकर मार्क्स को खरीदना चाहा l मार्क्स के पुराने साथी बूचर को पैसों के बल फोड़ लिया और उसके हाथों 5 अक्टूबर 1865 को एक गुप्त पत्र भिजवाया जिसमे सरकारी समाचार पत्र के संपादक के रूप में मार्क्स को आमंत्रित किया गया था और एक मोटी रकम देने का उल्लेख था l बिस्मार्क की यह कुटिल चाल सफल न हो सकी l मार्क्स ने प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से इन्कार के दिया l श्रेष्ठ सिद्धांतों को व्यक्तिगत आवश्यकताओं से भी अधिक महत्व देने वाले मार्क्स ने कठिनाइयों को स्वेच्छापूर्वक वरण किया l यह प्रलोभनों पर आदर्शों की एक ऐसी महान विजय थी जिसने कार्ल मार्क्स को महानता की और अग्रसर किया और विश्व - विख्यात बनाया l
क्रान्तिकारी विचारों का जनक होने के कारण प्रसिद्ध विचारक कार्ल मार्क्स को फ्रांस तथा जर्मनी दोनों ही देशों से निकलना पड़ा l वे परिवार सहित लन्दन में जा बसे , यहीं उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ
' दास कैपिटल ' की रचना की l लन्दन प्रवास के दौरान मार्क्स को घोर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा l उनके दो बच्चे गरीबी व भूख के कारण मर गए , किराया न देने के कारण मकान मालिक ने उन्हें घर से निकाल दिया l रोटी के लिए बिस्तर व वस्त्र तक बेचने पड़े l इन सब कठिनाइयों के बावजूद मजदूरों के बीच बोलने , उनका संगठन खड़ा करने और अपने विचारों को लिपिबद्ध करने का क्रम चलता रहा l उन दिनों जर्मनी में बिस्मार्क का प्रभुत्व था , उसे डर था कि यदि मार्क्स के विचार फैल गए तो जर्मनी में पूंजीवाद की नींव सदा के लिए उखड़ जाएगी l इसलिए बिस्मार्क ने अप्रत्यक्ष रूप से रिश्वत देकर मार्क्स को खरीदना चाहा l मार्क्स के पुराने साथी बूचर को पैसों के बल फोड़ लिया और उसके हाथों 5 अक्टूबर 1865 को एक गुप्त पत्र भिजवाया जिसमे सरकारी समाचार पत्र के संपादक के रूप में मार्क्स को आमंत्रित किया गया था और एक मोटी रकम देने का उल्लेख था l बिस्मार्क की यह कुटिल चाल सफल न हो सकी l मार्क्स ने प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से इन्कार के दिया l श्रेष्ठ सिद्धांतों को व्यक्तिगत आवश्यकताओं से भी अधिक महत्व देने वाले मार्क्स ने कठिनाइयों को स्वेच्छापूर्वक वरण किया l यह प्रलोभनों पर आदर्शों की एक ऐसी महान विजय थी जिसने कार्ल मार्क्स को महानता की और अग्रसर किया और विश्व - विख्यात बनाया l
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