एक बार अग्निवेश ने आचार्य चरक से पूछा ---- " संसार में जो अगणित रोग पाए जाते हैं , उनका कारण क्या है ? "
आचार्य ने उत्तर दिया ---- " व्यक्ति के पास जिस स्तर के पाप ( दुष्कर्म ) जमा हो जाते हैं , उसी के अनुरूप शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं l जिस तरह आहार - विहार के असंयम से शारीरिक रोग पनपता है , उसी तरह विचारणा, चिंतन - मनन एवं कर्म के लिए निर्धारित नीति मर्यादा का उल्लंघन करने के कारण मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं l शरीर और मन परस्पर गुंथे हुए हैं l शारीरिक रोग कालांतर में मानसिक और मानसिक रोग शारीरिक रोग बन जाते हैं l "
समर्थ वैद्य जीवक एक बार एक रोगी को लेकर चिंतित थे l वह पूर्ण रूप से स्वस्थ था किन्तु उसकी दाई आँख खुलती नहीं थी l उसके शरीर के सभी अंग और आँख के सभी अवयव सामान्य थे l उन्होंने तथागत के शिष्य महास्थविर रैवत को यह सारी समस्या कथा सुनाई l रैवत मानवीय चेतना के मर्मज्ञ थे l सब जानने के बाद वे बोले ---- " जीवक ! तुम्हारे रोगी की समस्या शारीरिक नहीं , मानसिक है l उसने अपने जीवन में नैतिकता की अवहेलना की है l इसी वजह से यह ग्रंथि बनी है l इसे भगवान बुद्ध के पास ले जाओ l "
उस रोगी ने अपने सभी गलत कार्य , मन की सारी व्यथा भगवान बुद्ध को सुना दी l भगवान ने उसके मस्तक पर हाथ फेरा l उसकी आँख खुल गई , रोग से मुक्ति मिली l किन्तु जो गलतियाँ की थी उनकी क्षतिपूर्ति के लिए प्रायश्चित अनिवार्य था -- अत: उसे जनसेवा का व्रत दिलाया गया l
आचार्य ने उत्तर दिया ---- " व्यक्ति के पास जिस स्तर के पाप ( दुष्कर्म ) जमा हो जाते हैं , उसी के अनुरूप शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां उत्पन्न होती हैं l जिस तरह आहार - विहार के असंयम से शारीरिक रोग पनपता है , उसी तरह विचारणा, चिंतन - मनन एवं कर्म के लिए निर्धारित नीति मर्यादा का उल्लंघन करने के कारण मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं l शरीर और मन परस्पर गुंथे हुए हैं l शारीरिक रोग कालांतर में मानसिक और मानसिक रोग शारीरिक रोग बन जाते हैं l "
समर्थ वैद्य जीवक एक बार एक रोगी को लेकर चिंतित थे l वह पूर्ण रूप से स्वस्थ था किन्तु उसकी दाई आँख खुलती नहीं थी l उसके शरीर के सभी अंग और आँख के सभी अवयव सामान्य थे l उन्होंने तथागत के शिष्य महास्थविर रैवत को यह सारी समस्या कथा सुनाई l रैवत मानवीय चेतना के मर्मज्ञ थे l सब जानने के बाद वे बोले ---- " जीवक ! तुम्हारे रोगी की समस्या शारीरिक नहीं , मानसिक है l उसने अपने जीवन में नैतिकता की अवहेलना की है l इसी वजह से यह ग्रंथि बनी है l इसे भगवान बुद्ध के पास ले जाओ l "
उस रोगी ने अपने सभी गलत कार्य , मन की सारी व्यथा भगवान बुद्ध को सुना दी l भगवान ने उसके मस्तक पर हाथ फेरा l उसकी आँख खुल गई , रोग से मुक्ति मिली l किन्तु जो गलतियाँ की थी उनकी क्षतिपूर्ति के लिए प्रायश्चित अनिवार्य था -- अत: उसे जनसेवा का व्रत दिलाया गया l
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