पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' संकटों से डर कर जीवन से भागना भीरुता है और इस संसार में समस्त दण्ड विधान भीरु और कायर व्यक्ति के लिए बनाये जाते हैं l '
आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' मरकर परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता l कर्मों का नाश नहीं होता l अगला जीवन वहीँ से शुरू होगा , जहाँ से तुमने इसे छोड़ा था l आत्महत्या पाप है --- इसका दोहरा दंड है --- एक -आत्महत्या का दंड और दूसरा अपने कर्मक्षेत्र से भागने का दंड l ' ऋषि का कहना है -- प्रारब्ध प्राप्त भोगों को शांति और धैर्य के साथ भोग लेने में ही भलाई है , उनसे भागना नहीं चाहिए क्योंकि प्रारब्ध कभी पीछा नहीं छोड़ता , भोगना ही पड़ता है l
पेशवाओं के पथ - प्रदर्शक -- ब्रह्मेन्द्र स्वामी , इनका जन्म का नाम विष्णुपंत था , जब दस वर्ष के थे , तब उनके माता - पिता की मृत्यु हो गई l सारी सम्पति सगे - संबंधियों ने हड़प ली और उन्हें रूखी रोटी भी नहीं देते थे , ऐसा व्यवहार करते थे जैसे वे कोई छूत के रोगी हों l जीवन से निराश होकर बीस वर्ष की आयु में वे आत्महत्या करने पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए l कूदने ही वाले थे कि महायोगी ज्ञानेंद्र सरस्वती ने उन्हें आवाज देकर रोक दिया और उन्हें समझाया कि --- मानव जीवन दुबारा नहीं मिलता , यह बहुमूल्य है l अपरिमित शक्तियों का स्रोत है l दूसरों की पीड़ा को भी समझो l औरों को ऊँचा उठाने में लगी दुर्बल भुजाएं भी थोड़े समय में लौह - दंड बन जाएँगी l मानव जीवन की गरिमा को पहचानों l --- इस तरह उन्होंने युवक विष्णुपंत को जीवन जीना सिखाया और कहा कि निराशा में डूबे हुए व्यक्तियों में जीवन चेतना का प्रसार करो l
जीवन के इस महामंत्र से यही युवक ब्रह्मेन्द्र स्वामी में बदल गया और 17 वीं सदी में महाराष्ट्र के इतिहास को एक नया मोड़ दिया l साधारण से क्लर्क बालाजी विश्वनाथ को गढ़कर पेशवा बनाया l
आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' मरकर परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता l कर्मों का नाश नहीं होता l अगला जीवन वहीँ से शुरू होगा , जहाँ से तुमने इसे छोड़ा था l आत्महत्या पाप है --- इसका दोहरा दंड है --- एक -आत्महत्या का दंड और दूसरा अपने कर्मक्षेत्र से भागने का दंड l ' ऋषि का कहना है -- प्रारब्ध प्राप्त भोगों को शांति और धैर्य के साथ भोग लेने में ही भलाई है , उनसे भागना नहीं चाहिए क्योंकि प्रारब्ध कभी पीछा नहीं छोड़ता , भोगना ही पड़ता है l
पेशवाओं के पथ - प्रदर्शक -- ब्रह्मेन्द्र स्वामी , इनका जन्म का नाम विष्णुपंत था , जब दस वर्ष के थे , तब उनके माता - पिता की मृत्यु हो गई l सारी सम्पति सगे - संबंधियों ने हड़प ली और उन्हें रूखी रोटी भी नहीं देते थे , ऐसा व्यवहार करते थे जैसे वे कोई छूत के रोगी हों l जीवन से निराश होकर बीस वर्ष की आयु में वे आत्महत्या करने पहाड़ की चोटी पर पहुँच गए l कूदने ही वाले थे कि महायोगी ज्ञानेंद्र सरस्वती ने उन्हें आवाज देकर रोक दिया और उन्हें समझाया कि --- मानव जीवन दुबारा नहीं मिलता , यह बहुमूल्य है l अपरिमित शक्तियों का स्रोत है l दूसरों की पीड़ा को भी समझो l औरों को ऊँचा उठाने में लगी दुर्बल भुजाएं भी थोड़े समय में लौह - दंड बन जाएँगी l मानव जीवन की गरिमा को पहचानों l --- इस तरह उन्होंने युवक विष्णुपंत को जीवन जीना सिखाया और कहा कि निराशा में डूबे हुए व्यक्तियों में जीवन चेतना का प्रसार करो l
जीवन के इस महामंत्र से यही युवक ब्रह्मेन्द्र स्वामी में बदल गया और 17 वीं सदी में महाराष्ट्र के इतिहास को एक नया मोड़ दिया l साधारण से क्लर्क बालाजी विश्वनाथ को गढ़कर पेशवा बनाया l
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