2 September 2020

WISDOM ----- जो आंतरिक संपदा से रहित होकर बाहर की संपदा को पाने के इच्छुक बने रहते हैं , उन्हें उनकी इच्छाएं दरिद्र बनाए रखती हैं --- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

    महर्षि  कणाद  केवल  कण  बीनकर   अपनी  गुजर  कर  लेते  थे   इसलिए  उनका  नाम  कणाद  पड़   गया  l  किसान  जब  खेत  काट  लेते  थे  ,  तो  उसके  बाद  जो  अन्न - कण  पड़े  रह  जाते  थे  ,  उन्हें  ही  बीनकर  वे  अपना  जीवन  चलाते   थे   l  उस  देश  के  राजा  को  जब  इस  बात  का  पता  चला   तो  उन्होंने  अपने  मंत्री  को   उनके  पास  प्रचुर  धन  सामग्री  लेकर  भेजा  l  मंत्री  के  पहुँचने  पर  महर्षि  ने  कहा --- ' मैं  सकुशल  हूँ  l  इस  धन  को  तुम  उन्हें  बाँट  दो  ,  जिन्हे  इसकी  आवश्यकता  है  l "  ऐसा  तीन  बार  हुआ  l   अंत  में  राजा  स्वयं  बहुत  सारा  धन  लेकर    उनसे   मिलने  गया  l   उसने  महर्षि  से  उस  संपदा   को  स्वीकार  करने  की  प्रार्थना  की  ,  किन्तु   वे  पहले  की  भांति  बोले  --- " उन्हें  दे  दो  ,  जिनके  पास  कुछ  भी  नही   है  l  देखो   मेरे  पास   तो  सब  कुछ  है  l  "  राजा  ने  चकित  होकर   उनकी  ओर   देखा  l   जिसके  शरीर  पर  बस ,  केवल  एक  लंगोटी  है  ,  वह  कह  रहा  है   कि   उसके  पास  सब  कुछ  है  ,  लेकिन  राजा  ने  महर्षि  से  कुछ  नहीं  कहा   l   वापस  लौटने  पर  राजा  ने  सारी   कथा  रानी  को  कह  सुनाई   l   रानी  विवेकवान  थी   l  उसने  कहा ---- " आपने  भूल  की  है  l   ऋषि  के  पास   उन्हें कुछ  देने  नहीं  ,  बल्कि  उनसे  कुछ  लेने  जाना  चाहिए  l  "  रानी  की  बात  मानकर   उसी  समय  राजा  महर्षि  के  पास  गए   और  उनसे  ज्ञान  की  याचना  की   l  इस  पर   महर्षि  ने  कहा  --- " राजन  !  संपदा   बाहर   भी  है   और  भीतर  भी  l   बाहर  की  संपदा   मिलने  पर    उसका  खोना  सुनिश्चित  है  ,  लेकिन  भीतर  की  संपदा   मिल  जाने  पर   वह  सदा  बनी    रहती  है   और  उसे  पा  लेने  के   बाद  कुछ  और  पा  लेना  शेष  नहीं  रह  जाता  l 

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