पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " सामान्यतया आदमी निष्ठुर जोंक की तरह दूसरों का खून चूस - चूस कर साधन सम्पति बटोरते और क्रुद्ध नाग की तरह उनकी रक्षा करने में जिंदगी खपा देता है l ----- एक जमींदार ने विधवा बुढ़िया का खेत बलपूर्वक छीन लिया l बुढ़िया ने गाँव के सभी लोगों के पास इस अत्याचार से बचाने की पुकार की , पर जमींदार का ऐसा ' दबदबा ' था कि हर कोई स्वयं को बचाने में तत्पर था , जमींदार के सामने मुंह खोलने की हिम्मत ही किसी में नहीं थी l दुःखी बुढ़िया ने स्वयं ही साहस बटोरा और जमींदार के पास यह कहने पहुंची कि खेत नहीं लौटाते तो उसमें से एक टोकरी मिट्टी खोद लेने दे , ताकि कुछ तो मिलने का संतोष हो जाए l जमींदार राजी हो गया और बुढ़िया को साथ लेकर खेत पहुंचा l बुढ़िया रोती जाए और मिट्टी से टोकरी भरती जाए l टोकरी पूरी भर गई तो बहुत भारी हो गई , तो बुढ़िया ने कहा --- ' इसे उठवाकर मेरे सिर पर रखवा दे l ' जमींदार ने अकड़ कर कहा ---- " बुढ़िया ! इतनी सारी मिट्टी सिर पर रखेगी तो दबकर मर जाएगी l " बुढ़िया ने पलटकर पूछा ---- ' यदि इतनी सी मिट्टी से मैं दबकर मर जाऊँगी तो तू पूरे खेत की मिट्टी लेकर जीवित कैसे रहेगा ? " जमींदार से उत्तर देते न बना , अहंकार और लालच ने उसके हृदय की संवेदना को सुखा दिया था l
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