महर्षि अरविन्द ( मई , 1920 ) लिखते हैं ----- "युवाओं को ही नूतन विश्व का निर्माता बनना है , न कि उन्हें , जो पश्चिम के प्रतियोगिता पूर्ण व्यक्तिवाद , पूंजीवाद अथवा भौतिकवादी साम्यवाद को भारत का आदर्श मानते हैं , और न उन्हें जो प्राचीन धार्मिक नुस्खों के दास हैं l ----- मैं उन सभी को आमंत्रित करता हूँ जो एक महानतम आदर्श के लिए सत्य को स्वीकारते हुए , श्रम करते हुए , मस्तिष्क और हृदय को स्वतंत्र रखते हुए संघर्ष कर सकते हैं l ये ही नवयुग लाएंगे l " द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था l श्री अरविन्द को एहसास हुआ कि अंग्रेजों से घृणा करने के कारण आश्रम के कुछ अंतेवासी मन - ही -मन हिटलर की विजय की दुआ करने लगे हैं l श्री अरविन्द ने तत्कालीन शीर्ष कार्यकर्ताओं की शाम की एक बैठक में कहा ----- " जो लोग ऐसा कर रहे हैं वे असुरता की विजय चाहते हैं l भारतीय मूल्य हमें ऐसा नहीं करने देंगे l ऐसे व्यक्ति जो हिटलर की विजय की इच्छा रखते हैं , आश्रम से चले जाएँ l प्रश्न मूल्यों का है l हम परमात्मा की , आदर्शों की विजय चाहते हैं l " श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा था कि तू मोहग्रस्त होकर भीष्म और द्रोण को देख तो रहा है , उन्हें न मारने की दलीलें भी दे रहा है , पर तुझे यह नहीं दिखाई देता कि वे दुर्योधन के ----- अनीति के संरक्षक भी हैं l
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