पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' अंत में सत्य ही जीतता है l बल नहीं जीतता और न आतंक ही अंत तक ठहरता है l असत्य कितना ही साधन संपन्न क्यों न हो वह सत्य के आगे ठहर नहीं पाता l साधनहीन होते हुए भी सत्य , सुसम्पन्न असत्य से कहीं अधिक सामर्थ्यवान होता है l विजय सत्य की ही होती है l ' एक प्रेरणाप्रद दृष्टांत है ------- काबुल के सम्राट नमरूद ने ऐलान कराया कि वही ईश्वर है , उसी की पूजा की जाये l भयभीत प्रजा ने उसकी मूर्तियां बनाई और पूजा करने लगी l एक दिन राज -ज्योतिष ने उसे बताया कि इस वर्ष ऐसा बालक जन्म लेगा जो उसके ईश्वरत्व को चुनौती देगा l सम्राट को यह बात अखरी और उसने उस वर्ष जन्म लेने वाले सब बालकों को मार डालने की आज्ञा दे दी l राज कर्मचारी बालकों को ढूंढ़ -ढूंढ़कर मारने लगे l नमरूद की मूर्तियाँ गढ़ने वाले आजर की पत्नी ने भी सुन्दर पुत्र को जन्म दिया l उसका हृदय बहुत व्याकुल हो गया और बच्चे की रक्षा के लिए वह एक पहाड़ की गुफा में छिप गई और वहीं उसका लालन -पालन करने लगी l बालक का नाम था --इब्राहीम , अब वह बालक पांच वर्ष का हो गया l एक दिन उसने माता से पूछा ---- " हम लोग जहाँ रहते हैं , क्या उससे बड़ा इस दुनिया में और कुछ है ? " माता ने बालक को संसार के बारे में सब बताया और कहा -- इस सबका निर्माता एक ईश्वर है l ' अब बालक ईश्वर के दर्शन के लिए व्यग्र रहने लगा और एक दिन अवसर पाकर गुफा से बाहर निकला l प्रकृति के निकट संपर्क में आने और निरंतर ईश्वर चिंतन से उसे यह समझ में आया कि ईश्वर वह है जो न जन्मे और न मरे l ऐसे ईश्वर की उपासना का वह प्रचार करने लगा l नमरूद को पता चला कि उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई फ़क़ीर पैदा हो गया है , तो उसने इब्राहीम को पकड़ बुलाया और अनेक यंत्रणाएँ दीं l जब इब्राहीम के विचार नहीं बदले , तो उसे जलती हुई आग में पटककर मार डालने का आदेश हुआ l अग्नि प्रकोप से बचने में सहायता के लिए जब देवता उसके पास आये , तो उन्होंने यह कहकर सहायता अस्वीकार कर दी कि सत्य की निष्ठां कष्ट सहने से ही परिपक्व होती है l आप इतना अनुग्रह करें कि मेरा आत्मबल विचलित न हो l अंत में सत्य ही जीता , नमरूद का अहंकार गल गया l इब्राहीम की ईश्वर विवेचना आज भी मनुष्यों के ह्रदय में स्थान बनाये हुए है l
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