महापुरुषों के सम्मुख अनेक प्रलोभन प्राय: आया करते हैं , पर सच्चे आत्मज्ञानी सदा उनकी उपेक्षा करते हैं l स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन का प्रसंग है ----- एक दिन एकांत में उदयपुर के महाराणा उनसे मिले तो कहने लगे ----- " भगवन ! आप मूर्ति पूजा का खंडन छोड़ दें l यह राजनीति के सर्व ' संग्रह ' सिद्धांत के प्रतिकूल है l यदि आप इस बात को मान लें तो उदयपुर के एकलिंग महादेव के मंदिर की गद्दी आपकी ही है l वैसे हमारा समस्त राज्य ही उस मंदिर में समर्पित है पर मंदिर में राज्य का जितना भाग लगा हुआ है उसको भी लाखों रूपये की आय है l इतना भारी ऐश्वर्य आपका हो जायेगा और आप समस्त राज्य के गुरु माने जायेंगे l " यह सुनते ही स्वामी जी रोष से बोले ---- " महाराज ! आप मुझे तुच्छ प्रलोभन दिखाकर परमात्म देव से विमुख करना चाहते हैं l उसकी आज्ञा भंग कराना चाहते हैं ? राणाजी ! आपके जिस छोटे से राज्य और मंदिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ , वह मुझे अनंत ईश्वर की आज्ञा भंग करने के लिए विवश नहीं कर सकता l परमात्मा के परम प्रेम के सामने इस मरुभूमि की मायाविनी मारीचिका अति तुच्छ है l फिर मुझसे ऐसे शब्द मत कहियेगा l मेरे धर्म की ध्रुव धारणा को धराधाम और आकाश की कोई वस्तु डगमगा नहीं सकती l " स्वामी दयानन्द जी को इस प्रकार के प्रलोभन जीवन में अनेक बार दिए गए l काशी नरेश ने उनसे भारत प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव किया था l गुजरात में एक वकील ने उनसे कहा ---- " आप मूर्ति पूजा का विरोध करना छोड़ दें तो हम आपको शंकर जी का अवतार मानने लगें l " पर उन्होंने सदैव यही कहा कि मेरा कार्य देश और जाति की सेवा करना है l मैं परमात्मा के दिखाए मार्ग से कभी विमुख नहीं हो सकता l
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