दुर्बुद्धि का प्रकोप पतन की ओर ले जाता है l व्यक्ति जिस स्तर का है , वह उसी के अनुरूप क्षेत्र को अपनी दुर्बुद्धि की चपेट में ले लेता है l दुर्बुद्धि को मनुष्य अपनी कमजोरियों के कारण स्वयं आमंत्रित करता है l ' महाभारत ' का यह प्रसंग इस सत्य को स्पष्ट करता है ------ ' भोगविलास , जुआखोरी , नशा आदि ऐसे व्यसन हैं कि उनसे होने वाली बुराइयों को जानते हुए भी लोग उनके चक्कर में आ जाते हैं l धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो चुका था l इंद्रप्रस्थ के वैभव से दुर्योधन को बहुत ईर्ष्या थी , वह उन्हें आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकता था , इसलिए उसने अपने मामा शकुनि के साथ मिलकर धृतराष्ट्र को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे युधिष्ठिर को चौसर खेलने के लिए आमंत्रित करें l उन दिनों क्षत्रियों में यह नियम था कि खेल के लिए बुलावा मिलने पर उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता था l फिर युधिष्ठिर को चौसर का व्यसन भी था l खेल शुरू हुआ , दुर्योधन तुरंत बोल उठा --- मेरी जगह मामा शकुनि खेलेंगे लेकिन दांव लगाने के लिए जो धन - रत्न आदि चाहिए वह मैं दूंगा l पासे तो शकुनि के इशारे पर चलते थे l इंद्रप्रस्थ में अपार वैभव था l सम्राट युधिष्ठिर ने दांव लगाना शुरू किया ---- पहले रत्नों की बाजी लगी , फिर सोने - चाँदी के खजानों की , फिर रथों और घोड़ों की , तीनो दांव हार गए l युधिष्ठिर ने नौकर - चाकरों को दांव पर लगाया , फिर सारी सेना और हाथी - घोड़ों की बाजी लगा दी , सब हार गए खेल में युधिष्ठिर एक - एक कर के अपने सारे वैभव की बाजी लगाते गए , यहाँ तक कि अपने देश और देश की प्रजा को भी खो बैठे l लेकिन उनका चस्का न छूटा l शकुनि कपटी था , उसने कहा - अभी तो तुम्हारे चार वीर भाई हैं , उन्हें दांव पर क्यों नहीं लगते l एक - एक कर के युधिष्ठिर ने नकुल , सहदेव , भीम , अर्जुन और उनके शरीर पर जो वस्त्र - आभूषण थे सबको दांव पर लगा दिया , यह बाजी भी हार गए और अंत में स्वयं को भी हार गए l शकुनि ने सभा में खड़े होकर घोषणा की कि अब पाँचों पांडव उसके गुलाम हो चुके हैं l शकुनि बड़ा दुष्टात्मा था , उसने युधिष्ठिर से कहा --- अभी तुम्हारे पास एक चीज और है जो तुमने हारी नहीं है और वो है तुम्हारी पत्नी द्रोपदी , तुम उसको दांव पर क्यों नहीं लगाते ? उसकी बाजी लगाओ तो अपने आप को भी छुड़ा सकते हो l " जुए के नशे में चूर युधिष्ठिर के मुँह से निकला --- ' चलो , अपनी पत्नी द्रोपदी की भी बाजी लगाईं l ' शकुनि यही चाहता था ' तो यह चला ' कहते हुए उसने पासा फेंका और बोला ---- ' लो यह बाजी भी मेरी ही रही l ' अब दुर्योधन बोला ---- ' द्रोपदी अब महारानी नहीं , हमारी दासी है , उसे सभा में ले आओ ------------- विदुर जी ने कहा ---- युधिष्ठिर स्वयं को हार चुके थे , वे स्वयं गुलाम हो गए थे इसलिए उन्हें द्रोपदी को दांव पर लगाने का कोई हक नहीं l ' लेकिन जब व्यक्ति दूसरों का और विशेष रूप से अपनी ही कमजोरियों का गुलाम हो जाता है तो उसको आत्मविश्वास कम हो जाता है तब चालाक और छल -कपट करने वाले इसका फायदा उठाकर नीति और न्याय विरुद्ध कार्य करते हैं l परिणाम ---- महाभारत , विनाश !
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