आचार्य श्री लिखते हैं ----- ' जीवन बड़ी अमूल्य वास्तु है l इसका एक क्षण भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राएँ देने पर भी नहीं मिल सकता l ऐसा जीवन निरर्थक नष्ट हो जाए , तो इससे बड़ी हानि क्या हो सकती है ? '------ मगध में भयंकर अकाल पड़ा l भीषण गर्मी से धरती जलने लगी और क्षुधा के कारण प्रजा त्राहि -त्राहि करने लगी l सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने राजकोष को प्रजा की सहायता के लिए खोल दिया और साथ ही सबको स्थान -स्थान पर यज्ञ करने का निर्देश दिया , ताकि वरुण देव उससे पुष्ट होकर वृष्टि करने में सक्षम हों l पाटलिपुत्र में भी यज्ञ का आयोजन किया गया , जिसमें सात दिन तक निराहार व्रत का पालन करते हुए सम्राट ने मुख्य यजमान की भूमिका निभाई l इसके बाद सम्राट और साम्राज्ञी ने बंजर भूमि पर हल चलाना आरम्भ किया l हल के जमीन पर लगते ही वहां एक आकृति प्रकट हुई और सम्राट को संबोधित करते हुए बोली ---- " लोग श्रम की उपेक्षा कर रहे हैं , इसीलिए यह दुर्भिक्ष उपस्थित हुआ है l यदि प्रजा पुन: श्रम करना आरम्भ कर दे , तो खुशहाली के दिन पुन: वापस आ जायेंगे l " यह द्रश्य देखकर प्रजा को श्रम का महत्त्व ज्ञात हुआ और सभी श्रम करने में जुट गए l थोड़े परिश्रम से नाहर खोद ली गई और बंजर भूमि पर पानी की धारा बह निकली l श्रम के देवता ने सबको पुन: समृद्ध कर दिया l
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