गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है ----- ' परहित सरिस धर्म नहिं भाई l पर पीड़ा सम नहिं अधमाई l l ' पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने भी यही कहा कि दूसरों की पीड़ा निवारण करना l उनको पतन के मार्ग से सन्मार्ग पर लाना ही धर्म है l " धर्म की कितनी सरल व्याख्या है लेकिन आज समाज ने अपने स्वार्थ के लिए धर्म का भी इस्तेमाल कर लिया , धर्म को जटिल बना दिया l आज मनुष्य स्वयं के सुख से ज्यादा दूसरों के दुःख के लिए , उन्हें तरह -तरह से उत्पीड़ित करने , तनाव देने को लालायित है l यदि संसार में सुख न-शांति चाहिए तो धर्म के सही अर्थ को समझना होगा l --------- --------- पंढरपुर के विट्ठल मंदिर में भक्तों की लम्बी कतार लगी थी l लोग स्तुति -प्रणाम करते , भेंट चढ़ाते l लक्ष्मी जी भगवान से बोलीं ---- " इतने भक्त इतनी उमंग से आ -जा रहे हैं , आप हैं कि नीचे द्रष्टि किए उदास खड़े हैं l " भगवान बोले ----- " देवि ! मैंने पंक्ति के अंत तक द्रष्टि डालकर देख लिया l सभी अपने -अपने स्वार्थ के लिए आए हैं l मेरे लिए कोई नहीं आया है l मुझे कोई नहीं चाहता , सब मुझसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं l " यह सुनकर लक्ष्मी जी बहुत उदास हो गईं , उन्होंने कहा ----- " क्या ऐसा कोई नहीं है , जो हमारे लिए हमारे पास आए ? " भगवान बोले ---- " तुकाराम है , पर वह बीमार पड़ा है , यहाँ तक चलकर आ नहीं सकता l चारपाई पर दर्शन के लिए व्याकुल पड़ा है l " लक्ष्मी जी की उदासी हटी , वे बोलीं ---- " तो चलिए , हम ही उसे दर्शन दे आएं l " मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ टूटी पड़ रही थी और भगवान अपने सच्चे भक्त तुकाराम के पलंग के सामने खड़े थे l
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