पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " संवेदना की गहरी नींव में संबंधों का भव्य महल खड़ा होता है l मानव जीवन में पनपने वाला संबंध भावनाओं के तल पर उपजता है l भावनाओं की परिष्कृति एवं स्थिरता संबंधों को स्वस्थ एवं सुद्रढ़ बनाती है l यदि संबंध अच्छे होते हैं तो जीवन की सुन्दरता , खूबसूरती बढ़ जाती है और यदि संबंधों में कटुता पनपती है तो जीवन नरकतुल्य और अर्थहीन लगता है l " आचार्य श्री लिखते हैं --- 'आज भावनाओं की सार्थकता खो गई है , आज का सबसे बड़ा दुर्भिक्ष भावनाओं के क्षेत्र का है l इसी के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समस्याएं उत्पन्न हुई हैं l " आज की संस्कृति भोग प्रधान है l मनुष्य का लालच , कामनाएं , वासना , तृष्णा , महत्वाकांक्षा आदि मानसिक विकार अपने चरम पर हैं जिसके नीचे भावनाएं कुचल गई हैं l भौतिक प्रगति तो बहुत हुई लेकिन चेतना के स्तर पर मनुष्य पशु और कहीं तो नर पिशाच है l भावनाएं जाति , धर्म , प्रेम विवाह , अरेंज मैरिज , अंतर्जातीय विवाह आदि के कारण परिष्कृत या विकृत नहीं होतीं l माता -पिता बहुत सोच समझकर अपनी पुत्री का विवाह करते हैं , तब भी घरेलु हिंसा , उत्पीड़न , दहेज़ हत्या , चारित्रिक कमियां आदि अनेक जटिल समस्याएं संतान के जीवन में आती हैं l भावनाओं का सीधा संबंध विचारों से है l आज सम्पूर्ण समाज का वातावरण जहरीला हो चुका है l फिल्मों के माध्यम से जो अश्लीलता और अपराध के नए -नए तरीके समाज के सामने आते हैं उससे क्या बच्चे और क्या वृद्ध सबके विचार विकृत हो गए हैं l प्रौढ़ हों या वृद्ध हों , उन्हें लगता है जीवन कब हाथ से फिसल जाये , कितना सुख और भोग लें l उनमें त्याग की भावना ही नहीं है l बच्चों और युवाओं को दिशा कौन दे l आचार्य श्री लिखते हैं ---- चिन्तन परिक्षेत्र बंजर हो जाने के कारण कार्य भी नागफनी और बबूल जैसे हो रहे हैं l ' समस्या का समाधान भी हमारे ही पास है -- जब हम विदेशियों की नक़ल करने के बजाय अपनी संस्कृति , अपने आचार -विचार , अपना रहन -सहन और शिक्षा , चिकित्सा , कृषि आदि सभी क्षेत्रों में जब हम अपनी संस्कृति , अपनी मिटटी के अनुरूप कार्य करेंगे तभी स्वस्थ और सुन्दर समाज का निर्माण होगा l
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