एक बादशाह अपने गुलाम के साथ नाव में यात्रा कर रहा था l गुलाम ने कभी नौका में सफ़र नहीं किया था , इसलिए उसे कुछ अटपटा लग रहा था वह उन्मत्त बन्दर की भांति नाव में उछल -कूद मचा रहा था l इससे सभी लोग परेशान हो रहे थे l मल्लाह ने उसे कई बार समझाया कि इस तरह नाव डूब सकती है लेकिन उसकी समझ में कुछ न आया नाव में एक दार्शनिक भी था , उसने बादशाह से कहा --" जहाँपनाह , आप इजाजत दें तो मैं इस गुलाम को भीगी बिल्ली बना सकता हूँ l " बादशाह ने तत्काल अनुमति दे दी l दार्शनिक ने दो यात्रियों का सहारा लिया और उस गुलाम को नाव से उठाकर नदी में फेंक दिया l गुलाम को तैरना नहीं आता था , जब डूबने लगा तो उसने नाव के खूंटे को कसकर पकड़ लिया l कुछ देर बाद दार्शनिक ने उसे खींचकर नाव में चढ़ा लिया l वह गुलाम अब कोने में जाकर ऐसे चुपचाप बैठ गया मानो भीगी बिल्ली हो l नाव के यात्रियों और बादशाह को भी गुलाम के इस संयमित व्यवहार पर आश्चर्य हुआ l बादशाह ने दार्शनिक से पूछा --- 'यह पहले उन्मत्त बन्दर की भांति हरकतें कर रहा था , अब इतना सयाना बनकर कैसे बैठा है l दार्शनिक ने जवाब दिया --- " स्वयं आपत्ति और दुःख का स्वाद चखे बिना किसी को पराये दुःख और विपत्ति का एहसास नहीं होता l इस गुलाम को जब मैंने पानी में फेंक दिया और इसके मुंह में पानी भरने लगा तब इसे पता चला कि नाव डूब गई तो सब यात्रियों की क्या हालत होगी l
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