विन्ध्याचल पर्वत पर दो चींटियाँ रहती थीं l एक उत्तरी चोटी पर और दूसरी दक्षिणी चोटी पर l एक का घर शक्कर की खान में था , और दूसरी का नमक की खान में l एक दिन शक्कर की खान में रहने वाली चींटी ने दूसरी को निमंत्रण दिया --- " बहन ! क्या इस नमक की खान में पड़ी हो , मेरे यहाँ चलो , वहां शक्कर ही शक्कर है l खाकर मुँह मीठा करो और अपना जीवन सफल बनाओ l " दूसरी चींटी ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन शक्कर की खान में जा पहुंची l अपनी सहेली को देख चींटी बड़ी प्रसन्न हुई और उसे घूम- घूमकर शक्कर की खान दिखाई और कहा --- यहाँ किसी बात की कमी नहीं है , जी चाहे जितनी शक्कर खाओ l " चींटी दिन भर इधर -उधर भागती फिरी और शाम को पहली चींटी से यह कहकर चली गई कि बहन तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया l यदि शक्कर तुम्हारे पास नहीं थी तो मुझे निमंत्रण ही क्यों दिया l " पास ही एक कुटिया में एक संत और उनका शिष्य निवास करते थे l शिष्य ने पूछा --- " गुरुदेव ! शक्कर के पहाड़ पर घूमने पर भी चींटी को शक्कर का पता क्यों नहीं चला ? " संत बोले ---- " वत्स ! बात यह थी कि चींटी अपने मुंह में नमक का टुकड़ा दाबे हुए थी , इसी से उसे शक्कर की मिठास का आभास नहीं हो पाया l इसी प्रकार जो लोग अपने पुराने संस्कार नहीं बदलते , आत्म शोधन द्वारा अपनी बुराइयाँ नहीं हटाते , परमात्मा के समीप होते हुए भी उनकी कृपा से वंचित हो जाते हैं l नया पाने के लिए पुराने को हटाने का नियम अनिवार्य और अटल है l "
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