पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " मनुष्य का मन एक चोर है , उसे बाहरी दबाव से एक सीमित मात्रा में ही काबू में रखा जा सकता है l आत्म सुधार तो ह्रदय परिवर्तन से ही संभव है और उसे स्वयं ही संयम साधना के आधार पर करना होता है l " यदि हम केवल सामाजिक बुराइयों को ही देखें तो उन्हें दूर करने के लिए कितने नियम कानून बन गए हैं लेकिन फिर भी कोई सतयुगी वातावरण नहीं है l नियम कानून से बहुत सीमित मात्रा में ही नियंत्रण संभव है , चेतना परिष्कृत न होने से शराफत का आवरण ओढ़ कर व्यक्ति गलत काम छुपकर करने लगता है l संत एकनाथ के साथ एक चोर भी तीर्थयात्रा पर चल पड़ा l साथ लेने से पूर्व संत ने उसे चोरी न करने की प्रतिज्ञा करवाई l यात्रा मंडली को नित्य ही एक परेशानी का सामना करना पड़ता l रात को रखा गया सामान कहीं से कहीं चला जाता l नियत स्थान पर न पाकर सभी हैरान होते और जैसे -तैसे ढूंढ कर लाते l नित्य की इस परेशानी से तंग आकर इस स्थिति के कारण की खोज शुरू हुई l रात को जागकर इस उलट -पुलट की वजह ढूँढने का जिम्मा एक चतुर यात्री ने उठाया l खुराफाती पकड़ा गया l सवेरे उसे संत एकनाथ के सम्मुख पेश किया गया l पूछने पर उसने वास्तविकता कही l चोरी करने की उसकी आदत मजबूत हो गई है लेकिन यात्रा काल में चोरी न करने की कसम निभानी पड़ रही है , पर उसका मन नहीं मानता तो तूंबा -पलटी (इधर का उधर सामान रख आने ) से उसका मन बहल जाता है l इससे कम में काम चल नहीं सकता इसलिए वह यह खुराफात करने लगा l
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