महाभारत का महायुद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के पास मदद की इच्छा से गए l भगवान ने कहा --- एक तरफ मेरी विशाल सेना है और दूसरी तरफ मैं नि:शस्त्र , युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा l दुर्योधन ने विशाल सेना को चुना और अर्जुन ने भगवान से भगवान को ही मांग लिया l श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने l अर्जुन ने अपने जीवन की बागडोर भगवान के हाथों में सौंप दी , स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया l यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि यह समर्पण कर्तव्यपालन के साथ था l आखिरी साँस तक कर्तव्यपालन करना है तभी ईश्वर की कृपा मिलेगी , आलस या पलायन नहीं चलेगा l जब अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने ही भाई -बंधुओं , गुरु , पितामह को देखा तो अपने अस्त्र -शस्त्र नीचे रख दिए , तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया , कर्तव्यपालन के लिए प्रेरित किया l जब भीष्म पितामह के साथ युद्ध में अर्जुन उस वीरता से नहीं वार कर रहा था , उसके मन में यही था कि ' पितामह हैं , मुझे बचपन में गोदी में खिलाया है ' l कृष्ण जी बार -बार समझा रहे थे कि पितामह अधर्म और अन्याय के साथ है , और इस अन्याय का अंत करने के लिए ही यह महायुद्ध है , पितामह के वार से निर्दोष सैनिक मरते जा रहे हैं , तुम वीरता से वार करो l लेकिन ऐसा करने के लिए अर्जुन स्वयं को असमर्थ महसूस कर रहा था तब अर्जुन को कर्तव्यपालन से विमुख होते देख भगवान श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया , वे रथ से कूद पड़े और एक टूटे हुए रथ का पहिया लेकर भीष्म पितामह को मारने दौड़े l सारी सेना में खलबली मच गई , पितामह तो भगवान की स्तुति करने लगे कि ऐसा सौभाग्य फिर कहाँ मिलेगा l अर्जुन ने दौड़कर भगवान के पैर पकड़ लिए और क्षमा मांगी कि मेरी वजह से आप अपनी नि:शस्त्र रहने की प्रतिज्ञा न तोड़ें l फिर अर्जुन ने जिस वीरता से युद्ध लड़ा कि पांडव विजयी हुए l आज के युग में ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन तो संभव नहीं हैं लेकिन यह प्रसंग इस बात को स्पष्ट करता है कि ईमानदारी से कर्तव्यपालन कर के ईश्वर को , उनकी कृपा को अनुभव किया जा सकता है l कलियुग की सबसे बड़ी व्यथा यही है कि बेईमानी , भ्रष्टाचार , लालच , तृष्णा , कामना ---- लोगों को नस -नस में समा गया है इसलिए कर्तव्यपालन को भी लोग अपने -अपने ढंग से , अपने संस्कार और मन: स्थिति के अनुसार ही समझते हैं l इसलिए ईश्वर अब केवल कर्मकांड तक कोरी कल्पना हैं , अब मनुष्य स्वयं को ही भगवान समझने लगा है l मनुष्य के इस भ्रम को प्रकृति अपने ढंग से तोड़ देती है और मनुष्य समझ भी जाता है कि भगवान का तीसरा नेत्र खुल गया लेकिन फिर भी वो सुधरता नहीं है l
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