संसार में अनेक प्राणी हैं , भूख , प्यास , निद्रा -------- आदि की जरुरत सभी प्राणियों को है लेकिन मनुष्य को यह विशेषाधिकार बुद्धि के रूप में केवल मनुष्य को ही प्राप्त है कि वह अपनी चेतना को विकसित करे , परिष्कृत करे और इनसान बने l मनुष्य के पास बुद्धि है ज्ञान है लेकिन ज्ञान के साथ यदि विवेक नहीं है , चेतना शून्य है तो वह अपनी बुद्धि का दुरूपयोग करता है और बुद्धि का दुरूपयोग करते -करते वह नर -पशु और मनुष्य शरीर में पिशाच की श्रेणी में आ जाता है जो केवल ध्वंस और उत्पीड़न का ही कार्य करते हैं , उनमें संवेदना नहीं होती l पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- " विज्ञानं ने असीमित शक्तियां मानव के हाथ में दे दीं हैं , पर उस शक्ति से कुछ भी शुभ नहीं हुआ l शक्ति आई है पर शांति नहीं आई है l मानव चेतना को सही ढंग से जाने बिना विज्ञान को जानना अधूरा ज्ञान है और ऐसे अधूरे ज्ञान से , अपनी ही चेतना को न जानने से जीवन दुःख में परिणत हो जाता है l " इतना विकास और भौतिक सुख -सुविधाओं में इतनी वृद्धि के बावजूद मनुष्य तनाव से और नई -नई बीमारियों से पीड़ित है l विवेकहीन विकास कुछ ऐसा होता है जिसमें मनुष्य स्वयं अपने ही हाथों से स्वयं को और समूची मानव सभ्यता को मिटाने की दिशा में आगे बढ़ता जाता है l राजकुमार शालिवाहन गुरु आश्रम में अध्ययन कर रहे थे l आश्रम में अन्य प्राणियों के जीवनक्रम को देखने -समझने का अवसर मिला तथा मानवोचित मर्यादाओं के पालन की कड़ाई से भी गुजरना पड़ा l उन्हें लगा कि पशुओं पर मनुष्य जैसे अनुशासन -नियंत्रण नहीं लगते , वे इस द्रष्टि से अधिक स्वतंत्र हैं l मनुष्य को तो कदम -कदम पर प्रतिबंधों को ध्यान में रखना पड़ता है l एक दिन उन्होंने अपने विचार गुरुदेव के सामने रख दिए l गुरुदेव ने स्नेहपूर्वक उनका समाधान किया ----- " वत्स ! पशु जीवन में चेतना कुएं या गड्ढे के पानी की तरह रहती है l उसे अपनी सीमा में रहना पड़ता है , इसलिए उस पर बाँध या किनारा बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती l लेकिन मनुष्य जीवन में चेतना प्रवाहित जल की तरह रहती है , उसे अपने गंतव्य तक पहुंचना होता है , इसलिए उसे मार्ग निर्धारण , बिखराव और भटकाव से रोक आदि की आवश्यकता पड़ती है l कर्तव्य -अकर्तव्य के बाँध बनाकर ही उसे मानवोचित लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकता हैं l अन्य प्राणी अपने तक सीमित हैं , लेकिन मनुष्य को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वह अनेकों का हित करते हुए आगे बढ़े l इसलिए उसे प्रवाह की क्षमता भी मिली है और कर्तव्यों का बंधन भी आवश्यक है l
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