आज संसार में इतनी अशांति है उसका एक प्रमुख कारण है --' असंतोष ' l मनुष्य सुख -सुकून पाने की चाह में भटक रहा है , शांति कहीं नहीं है l पौराणिक कथा है ---- कुबेर ने स्वर्ण नगरी लंका का निर्माण किया और उसे भगवान शिव को भेंट करने गया l शिवजी यक्षराज कुबेर से बोले ---- " कुबेर ! मैं कैलास पर समाधिस्थ रहने में ही संतुष्ट हूँ , इस स्वर्ण नगरी का मैं क्या करूँगा ? " तभी रावण वहां पहुंचा और उसने भगवान शिव से प्रार्थना की कि लंका उसे दे दी जाये l भगवान शिव ने सहर्ष सहमति दे दी l इस पर कुबेर बोले --- " भगवान ! रावण तो पहले ही 36 महल लेकर बैठा है , उसे एक और की भला क्या आवश्यकता है ? " प्रत्युत्तर में भगवान शिव बोले ---- " इसे रावण को ही दे दो कुबेर ! जो 36 महलों से ही संतुष्ट नहीं हुआ , उसे 37वां भी संतोष नहीं दे सकेगा l " रावण के पास सब कुछ था लेकिन शक्ति के साथ यदि अहंकार हो तो यह अहंकार विवेक को पनपने नहीं देता l जितनी ज्यादा शक्ति , उतना ही बड़ा अहंकार और इस अहंकार को पुष्ट करने के लिए उतना ही अत्याचार , अन्याय l कलियुग में संवेदनाएं तो कहीं खो गईं हैं , अंधकार की शक्तियां आक्रामक हो गईं हैं , उन्हें अपने अस्तित्व की चिंता है , प्रकाश को रोकने का भरसक प्रयास कर रही हैं l जो जितना शक्तिशाली , वैभव संपन्न है , विवेक के अभाव में उसके अत्याचार और अन्याय का दायरा उतना ही बड़ा है l इससे भी अधिक कष्टदायक बात यह है कि रावण की ' माया ' , आसुरी शक्तियां जो छिपकर वार करती हैं वे प्रबल हो गईं हैं l वास्तव में अपराधी कौन है यह तो अपराध करने वाला और ईश्वर ही जानता है l कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता l अपने बनाए कर्म फल विधान के आगे ईश्वर स्वयं भी विवश हैं l संसार में बढ़ती हुई असुरता और संवेदनहीनता को कैसे दूर किया जाए यह एक जटिल प्रश्न है ? हमारे वेद और प्राचीन ग्रन्थों में अनेक मन्त्र हैं , यदि श्रद्धा और विश्वासपूर्वक सम्मिलित रूप से उनका जप किया जाये और इस कलियुग में थोड़ा सा भी अपने आचरण में सुधार कर लिया जाये तो इस असुरता को , नकारात्मकता को पराजित किया जा सकता है l जागरूकता और देवत्व की विजय का संकल्प भी जरुरी है l अध्यात्म में ही असुरता को पराजित करने की ताकत है l
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