पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं -----" भगवान पत्र -पुष्पों के बदले नहीं , भावनाओं के बदले प्राप्त किए जाते हैं और वे भावनाएं आवेश , उन्माद या कल्पना जैसी नहीं , वरन सच्चाई की कसौटी पर खरी उतरने वाली होनी चाहिए l उनकी सच्चाई की परीक्षा मनुष्य के त्याग , बलिदान , संयम , सदाचार एवं व्यवहार से होती है l " वर्तमान युग का सबसे बड़ा संकट यही है कि लोग सोचते हैं कि जी भरकर पापकर्म करो , फिर डुबकी लगाओ , नहा -धो के भगवान को पुष्प , फल , मिठाई चढ़ा कर अपने पाप कर्मों को धो डालो , और फिर नए सिरे से अपने मनचाहे मार्ग पर चलो l हमें इस सत्य को समझना चाहिए कि इतनी सरलता से पापकर्मों से मुक्ति मिल गई होती तो संसार में इतना दुःख , लोगों के जीवन में तनाव , बीमारियाँ , आपदा -विपदा नहीं होतीं l जाने -अनजाने कोई भी पाप हो जाये तो उसकी सजा अवश्य मिलती है , दंड से बचना है तो श्रेष्ठ गुरु के संरक्षण में अपने पापों का प्रायश्चित्त करना पड़ता है l गंगा जी मात्र पवित्र नदी ही नहीं हैं , वे जीवन्त है , पितामह भीष्म गंगापुत्र थे l हमें यह समझना चाहिए कोई हमारे सिर पर अपना कचड़ा डाले तो हमें कैसा लगेगा ? हमें बहुत क्रोध आएगा ! गंगा जी , प्रकृति माँ के ऊपर करोड़ों लोग अपना कचड़ा डाल रहे हैं , उनका क्रोधित होना स्वाभाविक है l यह वेद -पुराणों द्वारा निश्चित पवित्र समय उन महान आत्माओं के लिए है जो काम , क्रोध , लोभ , मोह आदि सांसारिक आकर्षण से विरक्त हैं , उनके स्पर्श से प्रकृति को पोषण मिलता है , संसार का अँधेरा दूर होने लगता है l अमृत सबके लिए नहीं होता l आचार्य श्री लिखते हैं ----" अपनी दुष्प्रवृतियों को नियंत्रित कर लेना ही साधना है और अपने व्यक्तित्व का परिष्कार कर लेना ही सिद्धि है l " हम अपने विकारों को दूर कर ह्रदय को निर्मल बनाए , ऐसे पवित्र ह्रदय में ही ईश्वर आयेंगे , फिर हमें उन्हें ढूँढने कही जाने की जरुरत नहीं होगी l