जीवन का आनंद किसी वस्तु या परिस्थिति में नहीं ,बल्कि जीने वाले के द्रष्टिकोण में है ।दक्षिणेश्वर के मंदिर -विस्तार (शिवालय )के निर्माण के समय तीन श्रमिक धूप में बैठे पत्थर तोड़ रहे थे ।श्री रामकृष्ण देव ने उनसे पूछा -"क्या कर रहे हो ?"एक बोला ,"अरे भाई ,पत्थर तोड़ रहा हूँ ।"उसके कहने में दुःख था और बोझ था ।भला पत्थर तोड़ना आनंद की बात कैसे हो सकती है ।वह उत्तर देकर फिर बुझे मन से पत्थर तोड़ने लगा ।तभी श्री परमहंस देव की ओर देखते हुए दूसरे श्रमिक ने कहा ,"बाबा ,यह तो रोजी रोटी है ।मैं तो बस अपनी आजीविका कमा रहा हूँ ।"उसने जो कहा ,वह भी ठीक बात थी ।वह पहले मजदूर जितना दुखी तो नहीं था ,लेकिन आनंद की कोई झलक उसकी आँखों में नहीं थी ।तीसरा श्रमिक भी पत्थर तोड़ रहा था ,पर उसके ओंठो पर गीत के स्वर फूट रहे थे -"मन भज लो आमार काली पद नील कमले ।"उसने गीत को रोककर परमहंस देव को उत्तर दिया -"बाबा ,मैं तो माँ का घर बना रहा हूँ ।"उसकी आँखों में चमक थी ,ह्रदय में जगदंबा के प्रति भक्ति हिलोर ले रही थी ।माँ का मंदिर बनाने से बढकर आनंद भला और क्या हो सकता है ।इन तीनो श्रमिकों की बात सुनकर परमहंस देव भावसमाधि में डूब गये ।आनंद अनुभव करने का द्रष्टिकोण जिसने पा लिया ,उसके जीवन में आनंद ही आनंद है ।
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