उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं । जितना महत्व उपासना का है उतना ही साधना का भी है । जीवन को पवित्र और परिष्कृत, संयत और संतुलित, उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिये अपने गुण कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिये निरंतर प्रयत्न करना चाहिये । इसी प्रयत्न का नाम जीवन-साधना अथवा साधना है ।
उपासना ( पूजा ) तो निर्धारित समय का क्रियाकलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना 24 घंटे करनी पड़ती है । अपने हर विचार और कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित, अनुपयुक्त है तो उसे सुधारने का तुरंत व निरंतर प्रयत्न किया जाये ।
उपासना-पूजा की सफलता की आशा तभी की जा सकती है जब मनोभूमि का, अपने व्यक्तित्व का उसी प्रकार परिष्कार किया जाये जिस प्रकार कृषक अपने खेतों का करता है ।
खेत में बीज डालने से पूर्व किसान भूमि की जुताई करता है, कूड़ा-कचरा निकालता है, खाद डालता है तब भूमि इस योग्य हो पाती है कि उसमे बीज डालने और उसके उगने की संभावना निश्चित हो पाती है । इसी प्रकार मनोभूमि को शुद्ध किये बिना, अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार को परिष्कृत किये बिना डाला गया उपासना का बीज झाड़-झंखाड़युक्त खेत में पड़े उस बीज की तरह होगा जो या तो स्वयं सड़गल कर नष्ट हो जाता है या जिसे चूहे, चिड़िया, जंगली जीव चुन ले जाते हैं ।
भारतीय अध्यात्म के तत्वज्ञान एवं ऋषि अनुभवों का निष्कर्ष यही है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिये उपासना और साधना दोनों ही अनिवार्य हैं, ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
उपासना ( पूजा ) तो निर्धारित समय का क्रियाकलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना 24 घंटे करनी पड़ती है । अपने हर विचार और कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित, अनुपयुक्त है तो उसे सुधारने का तुरंत व निरंतर प्रयत्न किया जाये ।
उपासना-पूजा की सफलता की आशा तभी की जा सकती है जब मनोभूमि का, अपने व्यक्तित्व का उसी प्रकार परिष्कार किया जाये जिस प्रकार कृषक अपने खेतों का करता है ।
खेत में बीज डालने से पूर्व किसान भूमि की जुताई करता है, कूड़ा-कचरा निकालता है, खाद डालता है तब भूमि इस योग्य हो पाती है कि उसमे बीज डालने और उसके उगने की संभावना निश्चित हो पाती है । इसी प्रकार मनोभूमि को शुद्ध किये बिना, अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार को परिष्कृत किये बिना डाला गया उपासना का बीज झाड़-झंखाड़युक्त खेत में पड़े उस बीज की तरह होगा जो या तो स्वयं सड़गल कर नष्ट हो जाता है या जिसे चूहे, चिड़िया, जंगली जीव चुन ले जाते हैं ।
भारतीय अध्यात्म के तत्वज्ञान एवं ऋषि अनुभवों का निष्कर्ष यही है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिये उपासना और साधना दोनों ही अनिवार्य हैं, ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।
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