' ब्रह्म-शक्ति और शस्त्र शक्ति दोनों ही आवश्यक हैं । शास्त्र से भी और शस्त्र से भी धर्म का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिये । '
द्रोणाचार्य धर्म शास्त्रों में प्र से समझाकर सेवीण-पारंगत थे । पर वे शास्त्र अध्ययन के अतिरिक्त शस्त्र- विद्दा में भी कुशल थे । उनमे प्रवीणता प्राप्त करने के लिये उन्होंने तप-साधना, भक्ति-भावना से भी अधिक श्रम किया था । वे शस्त्र-संचालन का सत्पात्रों को शिक्षण देने के लिये एक साधन-संपन्न विद्दालय चलाते थे ।
एक दिन धौम्य ऋषि द्रोणाचार्य के आश्रम में जा पहुंचे । आचार्य को स्वयं शस्त्र धारण किये और दूसरों को शस्त्र-संचालन पढ़ाते देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ और बोले--" संतों को तो दया धर्म अपनाना और भक्ति भावना का प्रचार करना ही उचित है । आप रक्तपात की व्यवस्था क्यों बना रहें हैं । " द्रोणाचार्य ने कहा---" यह परिस्थितियों की मांग है । सज्जनों को सत्संग से, सत्परामर्श से समझाकर रास्ते पर लाया जा सकता है किंतु सर्प, बिच्छुओं और भेड़ियों पर धर्म शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उनका मुँह कुचलने के लिये शक्ति का होना आवश्यक है । इसके बिना इनकी
दुष्टता रूकती नहीं । " धौम्य का समाधान हो गया ।
द्रोणाचार्य धर्म शास्त्रों में प्र से समझाकर सेवीण-पारंगत थे । पर वे शास्त्र अध्ययन के अतिरिक्त शस्त्र- विद्दा में भी कुशल थे । उनमे प्रवीणता प्राप्त करने के लिये उन्होंने तप-साधना, भक्ति-भावना से भी अधिक श्रम किया था । वे शस्त्र-संचालन का सत्पात्रों को शिक्षण देने के लिये एक साधन-संपन्न विद्दालय चलाते थे ।
एक दिन धौम्य ऋषि द्रोणाचार्य के आश्रम में जा पहुंचे । आचार्य को स्वयं शस्त्र धारण किये और दूसरों को शस्त्र-संचालन पढ़ाते देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ और बोले--" संतों को तो दया धर्म अपनाना और भक्ति भावना का प्रचार करना ही उचित है । आप रक्तपात की व्यवस्था क्यों बना रहें हैं । " द्रोणाचार्य ने कहा---" यह परिस्थितियों की मांग है । सज्जनों को सत्संग से, सत्परामर्श से समझाकर रास्ते पर लाया जा सकता है किंतु सर्प, बिच्छुओं और भेड़ियों पर धर्म शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उनका मुँह कुचलने के लिये शक्ति का होना आवश्यक है । इसके बिना इनकी
दुष्टता रूकती नहीं । " धौम्य का समाधान हो गया ।
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