' क्रांतिकारी विचार ही मनोभूमियाँ बदलते हैं | बदली हुई मनोभूमि में ही महान जीवन एवं समर्थ समाज की संभावनाएँ समाविष्ट रहती हैं । '
एक दिन नारद जी पृथ्वी पर आये । उन्हें एक दीन-दरिद्र व्यक्ति मिला, जिसे अन्न के दाने भी उपलब्ध नहीं थे ।
दूसरी ओर उन्हें एक धनी मिला, जिससे अपनी दौलत सँभालते नहीं बन रही थी । बड़ा दुखी था । सारी परेशानियाँ और बीमारियाँ उसकी इसी कारण थीं, ऐसा वह सोचता था ।
नारद जी आगे बढ़े तो एक साधुओं की मंडली मिली । उसने उन्हें पहचान कर चारों ओर से घेर लिया और कहा-- " स्वर्ग में अकेले मौज करते हो । हम सबके लिये भी ऐसे राजसी ठाठ-बाट जुटाओ, नहीं तो हम चिमटे मार-मारकर हालत खराब कर देंगे । " घबराये नारद ने किसी तरह जान छुड़ाई । स्वर्ग पहुँचकर भगवान से अपनी यात्रा का विवरण सुनाया
नारायण हँसे और बोले-- " देखो नारद ! मैं कर्म के अनुसार ही देता हूँ । तुम अगली बार जाओ तो उस दीन-हीन से कहना--- दरिद्रता के लिये लड़े, स्वावलंबी बने तथा पुरुषार्थ करे, मैं उसे निश्चित ही कष्टों से मुक्त कर दूंगा ।
उस धनी सेठ से कहना---- यह धन-दौलत समाज के हित के लिये ही उसे मिली है । संग्रही न बने, लोक-कल्याण के कार्य करे तभी उसके कष्ट मिटेंगे ।
और उस साधु मंडली से कहना, ऐसा कहते हुए भगवान के नेत्र चढ़ गये, लाल हो गये और कहा-- दुष्टों से कहना कि साधु का वेश बनाकर आलस्य और स्वार्थपरता की प्रवंचना में जीने वालों, तुम्हारी दुर्गति होगी । नरक के निकृष्टतम स्थान में तुम्हे अनंत काल तक रहना होगा ।
सच्चे भक्त की पहचान भगवान के सामने ढोल मंजीरा बजाने से नहीं होती बल्कि परमार्थ से, निष्काम कर्म करने से होती है ।
एक दिन नारद जी पृथ्वी पर आये । उन्हें एक दीन-दरिद्र व्यक्ति मिला, जिसे अन्न के दाने भी उपलब्ध नहीं थे ।
दूसरी ओर उन्हें एक धनी मिला, जिससे अपनी दौलत सँभालते नहीं बन रही थी । बड़ा दुखी था । सारी परेशानियाँ और बीमारियाँ उसकी इसी कारण थीं, ऐसा वह सोचता था ।
नारद जी आगे बढ़े तो एक साधुओं की मंडली मिली । उसने उन्हें पहचान कर चारों ओर से घेर लिया और कहा-- " स्वर्ग में अकेले मौज करते हो । हम सबके लिये भी ऐसे राजसी ठाठ-बाट जुटाओ, नहीं तो हम चिमटे मार-मारकर हालत खराब कर देंगे । " घबराये नारद ने किसी तरह जान छुड़ाई । स्वर्ग पहुँचकर भगवान से अपनी यात्रा का विवरण सुनाया
नारायण हँसे और बोले-- " देखो नारद ! मैं कर्म के अनुसार ही देता हूँ । तुम अगली बार जाओ तो उस दीन-हीन से कहना--- दरिद्रता के लिये लड़े, स्वावलंबी बने तथा पुरुषार्थ करे, मैं उसे निश्चित ही कष्टों से मुक्त कर दूंगा ।
उस धनी सेठ से कहना---- यह धन-दौलत समाज के हित के लिये ही उसे मिली है । संग्रही न बने, लोक-कल्याण के कार्य करे तभी उसके कष्ट मिटेंगे ।
और उस साधु मंडली से कहना, ऐसा कहते हुए भगवान के नेत्र चढ़ गये, लाल हो गये और कहा-- दुष्टों से कहना कि साधु का वेश बनाकर आलस्य और स्वार्थपरता की प्रवंचना में जीने वालों, तुम्हारी दुर्गति होगी । नरक के निकृष्टतम स्थान में तुम्हे अनंत काल तक रहना होगा ।
सच्चे भक्त की पहचान भगवान के सामने ढोल मंजीरा बजाने से नहीं होती बल्कि परमार्थ से, निष्काम कर्म करने से होती है ।
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