' ईश्वर मात्र उन्ही की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं | '
जब तक व्यक्ति स्वयं न सुधरना चाहे उसे भगवान भी नहीं सुधार सकते |
ह्रदयराम मुखोपाध्याय ( ह्रदय ) रामकृष्ण परमहंस के साथ 25 वर्ष ( 1855-1881) रहे | वे ठाकुर से मात्र 4 वर्ष छोटे थे और बचपन में वे ठाकुर के साथ खेले भी थे, पर उनकी आध्यात्मिक विभूति पर उनका ध्यान कभी नहीं गया | कोलकाता में दक्षिणेश्वर में जब ठाकुर मंदिर के पुजारी बन गये यह सुनकर ह्रदयराम भी कोलकाता आ गये ।
समाधि की स्थिति में उनको सँभालने, उनको खाना बनाकर देने आदि सारी जिम्मेदारी ह्रदयराम ने संभाल ली । स्वयं ठाकुर मानते थे कि ह्रदय ने उनकी खूब सेवा की । अनेक शिष्य आते चले गये और दक्षिणेश्वर एक प्रकार से ईश्वरत्व को प्राप्त करने वाले जिज्ञासुओं की स्थली बन गया ।
लेकिन ह्रदयराम का व्यवहार बदलता गया । शरीर उनका बड़ा ताकतवर था । खूब खाते थे, जिसकी कोई कमी न थी । दंड भी पेलते थे । वे रामकृष्ण से रुखा बोलने लगे, कभी-कभी हाथ भी चला देते । कभी वे उनकी नकल बनाते । उनका अहंकार बढ़ता चला गया । अपने व्यवहार के कारण मई 1881 में उन्हें दक्षिणेश्वर छोड़ना पड़ा । वे 26 अक्टूबर, 1884 को एक बार फिर श्री रामकृष्ण से मिलने आये, पर उन्हें जाना पड़ा । बाद में ह्रदयराम ने कुलीगीरी की, स्वास्थ्य गिरता चला गया एवं 1899 में ह्रदयराम ने शरीर छोड़ दिया । उनका जीवन अभिशप्त ही रहा, जबकि उन्हें साक्षात् अवतार का साथ मिला ।
इससे यही समझ में आता है कि जो व्यक्ति काम के तरीके नहीं बदलता, अपने दोष-दुर्गुणों को दूर नहीं करता, अपना सुधार-परिष्कार नहीं करता, उसकी गति ऐसी ही दुःखद होती है ।
जब तक व्यक्ति स्वयं न सुधरना चाहे उसे भगवान भी नहीं सुधार सकते |
ह्रदयराम मुखोपाध्याय ( ह्रदय ) रामकृष्ण परमहंस के साथ 25 वर्ष ( 1855-1881) रहे | वे ठाकुर से मात्र 4 वर्ष छोटे थे और बचपन में वे ठाकुर के साथ खेले भी थे, पर उनकी आध्यात्मिक विभूति पर उनका ध्यान कभी नहीं गया | कोलकाता में दक्षिणेश्वर में जब ठाकुर मंदिर के पुजारी बन गये यह सुनकर ह्रदयराम भी कोलकाता आ गये ।
समाधि की स्थिति में उनको सँभालने, उनको खाना बनाकर देने आदि सारी जिम्मेदारी ह्रदयराम ने संभाल ली । स्वयं ठाकुर मानते थे कि ह्रदय ने उनकी खूब सेवा की । अनेक शिष्य आते चले गये और दक्षिणेश्वर एक प्रकार से ईश्वरत्व को प्राप्त करने वाले जिज्ञासुओं की स्थली बन गया ।
लेकिन ह्रदयराम का व्यवहार बदलता गया । शरीर उनका बड़ा ताकतवर था । खूब खाते थे, जिसकी कोई कमी न थी । दंड भी पेलते थे । वे रामकृष्ण से रुखा बोलने लगे, कभी-कभी हाथ भी चला देते । कभी वे उनकी नकल बनाते । उनका अहंकार बढ़ता चला गया । अपने व्यवहार के कारण मई 1881 में उन्हें दक्षिणेश्वर छोड़ना पड़ा । वे 26 अक्टूबर, 1884 को एक बार फिर श्री रामकृष्ण से मिलने आये, पर उन्हें जाना पड़ा । बाद में ह्रदयराम ने कुलीगीरी की, स्वास्थ्य गिरता चला गया एवं 1899 में ह्रदयराम ने शरीर छोड़ दिया । उनका जीवन अभिशप्त ही रहा, जबकि उन्हें साक्षात् अवतार का साथ मिला ।
इससे यही समझ में आता है कि जो व्यक्ति काम के तरीके नहीं बदलता, अपने दोष-दुर्गुणों को दूर नहीं करता, अपना सुधार-परिष्कार नहीं करता, उसकी गति ऐसी ही दुःखद होती है ।
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