' जिंदगी की सार्थकता को यदि खोजना है तो वह दूसरों की भलाई करने में है । '
अयोध्या के विशाल साम्राज्य के अधिपति थे महाराज चक्कवेण । वे जितने रणकुशल थे, उतने ही न्यायनिष्ठ एवं परम उदार थे । महासाम्राज्य के अधिपति थे लेकिन बहुत सरल थे । थोड़ी सी खेती करके अपनी गुजर-बसर करते थे ।
एक दिन उनके महामंत्री ने उनसे अनुरोध किया-- " राजन ! अन्य राजा अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हैं और आपस की चर्चा में वे यह व्यंग्य भी करते हैं कि तुम्हारा राजा दरिद्र है । ।"
महाराजा चक्कवेण ने कहा--- " जैसे अन्य राजाओं को विलासिता में सुख मिलता है उससे कई गुना अधिक सुख मुझे जनजीवन की सेवा में मिलता है । सेवा में मिलने वाला प्रत्येक कष्ट मुझे गहरी तृप्ति देता है । प्रत्येक दिन मेरे द्वारा जो भावभरे ह्रदय से सत्कर्म किये जाते हैं, मन से जनता की भलाई के लिये योजनाएं बनाई जाती हैं, उनके लिये सच्चिन्तन किया जाता है, वही उस दिन की सार्थकता है । "
राजा ने कहा-- " एक अर्थ में मैं दरिद्र हूँ, पर एक अर्थ में वे महादरिद्र हैं मैं अपनी सभी लौकिक संपदा प्रजा की सेवा में लगा चुका हूँ, परंतु इसी के साथ मैंने सत्कर्म-सदभाव व सद्ज्ञान की संपदा पायी है । यह सत्य है कि सेवा से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं । जब ह्रदयपूर्वक सेवा की जाती है, जब ह्रदय दूसरों के दुःख से विदीर्ण होना सीख जाता है, तब एक नये व्यक्तित्व का जन्म होता
है । व्यक्तित्व में पनपती है एक परम व्यापकता । स्वचेतना में परमचेतना समाती है । यही जीवन की सार्थकता है । "
अयोध्या के विशाल साम्राज्य के अधिपति थे महाराज चक्कवेण । वे जितने रणकुशल थे, उतने ही न्यायनिष्ठ एवं परम उदार थे । महासाम्राज्य के अधिपति थे लेकिन बहुत सरल थे । थोड़ी सी खेती करके अपनी गुजर-बसर करते थे ।
एक दिन उनके महामंत्री ने उनसे अनुरोध किया-- " राजन ! अन्य राजा अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हैं और आपस की चर्चा में वे यह व्यंग्य भी करते हैं कि तुम्हारा राजा दरिद्र है । ।"
महाराजा चक्कवेण ने कहा--- " जैसे अन्य राजाओं को विलासिता में सुख मिलता है उससे कई गुना अधिक सुख मुझे जनजीवन की सेवा में मिलता है । सेवा में मिलने वाला प्रत्येक कष्ट मुझे गहरी तृप्ति देता है । प्रत्येक दिन मेरे द्वारा जो भावभरे ह्रदय से सत्कर्म किये जाते हैं, मन से जनता की भलाई के लिये योजनाएं बनाई जाती हैं, उनके लिये सच्चिन्तन किया जाता है, वही उस दिन की सार्थकता है । "
राजा ने कहा-- " एक अर्थ में मैं दरिद्र हूँ, पर एक अर्थ में वे महादरिद्र हैं मैं अपनी सभी लौकिक संपदा प्रजा की सेवा में लगा चुका हूँ, परंतु इसी के साथ मैंने सत्कर्म-सदभाव व सद्ज्ञान की संपदा पायी है । यह सत्य है कि सेवा से श्रेष्ठ अन्य कुछ भी नहीं । जब ह्रदयपूर्वक सेवा की जाती है, जब ह्रदय दूसरों के दुःख से विदीर्ण होना सीख जाता है, तब एक नये व्यक्तित्व का जन्म होता
है । व्यक्तित्व में पनपती है एक परम व्यापकता । स्वचेतना में परमचेतना समाती है । यही जीवन की सार्थकता है । "
very nice thought... but nowadays very few follow it ...
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