' यदि भक्ति में कटौती करके सेवा में समय लगाना पड़े तो उसे घाटा नहीं समझना चाहिये । '
स्वामी विवेकानंद मई-जून 1897 में स्वास्थ्य लाभ के लिये अल्मोड़ा के समीप देवलघाट नामक स्थान पर विश्राम कर रहे थे, पर वहां रहते हुए भी उनका मन देशवासियों, रामकृष्ण संघ की प्रवृतियों तथा भारत व विश्व में फैले अपने शिष्यों में लगा रहता था । उन्ही दिनों उनने एक पत्र लिखा, जिसका एक महत्वपूर्ण वाक्य था--- " भारत में व्याख्यान तथा अध्यापन के द्वारा ज्यादा काम नहीं होगा । आवश्यकता है सक्रिय धर्म की । "
इसी तरह स्वामी अखंडानंद जी को, जो अकालराहत कार्य में कलकत्ता में कार्यरत थे, उनने एक पत्र लिखा था--- " कर्म, कर्म और कर्म--------मुझे और किसी चीज की परवाह नहीं है-------- ह्रदय और केवल ह्रदय ही विजय प्राप्त कर सकता है, मस्तिष्क नहीं । पोथी-पत्रा, विद्दा, योग, ध्यान और ज्ञान------- ये सब प्रेम की तुलना में धूलि के समान हैं । प्रेम में ही अणिमादि सिद्धियाँ हैं, प्रेम में ही भक्ति है, प्रेम में ही ज्ञान, और प्रेम में ही मुक्ति है । यही तो पूजा है-------- मानवरूपधारी ईश्वर की पूजा । इस प्रकार क्या हम संपूर्ण भारत---पृथ्वी भर में नहीं छा जायेंगे ?
स्वामी विवेकानंद मई-जून 1897 में स्वास्थ्य लाभ के लिये अल्मोड़ा के समीप देवलघाट नामक स्थान पर विश्राम कर रहे थे, पर वहां रहते हुए भी उनका मन देशवासियों, रामकृष्ण संघ की प्रवृतियों तथा भारत व विश्व में फैले अपने शिष्यों में लगा रहता था । उन्ही दिनों उनने एक पत्र लिखा, जिसका एक महत्वपूर्ण वाक्य था--- " भारत में व्याख्यान तथा अध्यापन के द्वारा ज्यादा काम नहीं होगा । आवश्यकता है सक्रिय धर्म की । "
इसी तरह स्वामी अखंडानंद जी को, जो अकालराहत कार्य में कलकत्ता में कार्यरत थे, उनने एक पत्र लिखा था--- " कर्म, कर्म और कर्म--------मुझे और किसी चीज की परवाह नहीं है-------- ह्रदय और केवल ह्रदय ही विजय प्राप्त कर सकता है, मस्तिष्क नहीं । पोथी-पत्रा, विद्दा, योग, ध्यान और ज्ञान------- ये सब प्रेम की तुलना में धूलि के समान हैं । प्रेम में ही अणिमादि सिद्धियाँ हैं, प्रेम में ही भक्ति है, प्रेम में ही ज्ञान, और प्रेम में ही मुक्ति है । यही तो पूजा है-------- मानवरूपधारी ईश्वर की पूजा । इस प्रकार क्या हम संपूर्ण भारत---पृथ्वी भर में नहीं छा जायेंगे ?
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