' मन की अमोघ शक्ति को यदि सृजनात्मक एवं विधेयात्मक दिशा में लगाया जा सके तथा स्रष्टि के कण-कण में समाई चेतन-सत्ता से संबंध जोड़ा जा सके, तो कठिन से कठिन बीमारियों पर विजय पाई जा सकती है | '
बीमारियों का प्रमुख कारण रोगाणुओं के आक्रमण, अपच एवं कुपोषण आदि को माना जाता है । इस तरह की बीमारियों के शिकार अधिकतर पिछड़े लोग ही बनते हैं जबकि विकसित एवं साधन संपन्न लोग शिक्षा, संपन्नता एवं बुद्धि का दुरूपयोग करने के कारण तनाव और तनाव से उत्पन्न बीमारियों से ग्रसित देखे जाते हैं । नशेबाजी, विलासिता, आपाधापी, शेखीखोरी जैसी दुष्प्रवृतियां न केवल व्यवहार, वरन चिंतन-मनन, एवं गुण, कर्म और स्वभाव पर भी छाई रहती हैं । परिणामस्वरुप शरीर और मन दोनों की शक्तियों का अंधाधुंध अपव्यय होता है और दोनों क्षेत्रों पर छाई रहने वाली दुष्प्रवृतियां अंतत: चित्र-विचित्र रोगों के रूप में फूटती हैं । महंगे टानिक और दवाइयों से इनपर नियंत्रण पाना आसान नहीं है ।
समग्र स्वास्थ्य संवर्द्धन की दिशा में तभी आगे बढ़ा और जीवन का सच्चा आनंद उठाया जा सकता है, जब गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश किया जा सके ।
भगवान बुद्ध एक रात्रि प्रवचन कर रहे थे । प्रवचन सुनने के लिये बैठे हुए व्यक्तियों में से एक व्यक्ति बार-बार नींद के झोंके ले रहा था । तथागत ने उस ऊँघते व्यक्ति से कहा-- " वत्स ! सोते हो । " हड़बड़ाकर उस व्यक्ति ने कहा-- " नहीं भगवान ! ' प्रवचन पूर्ववत चालू हो गया और वह व्यक्ति फिर ऊँघने लगा । भगवान बुद्ध ने उसे तीन-चार बार जगाया परंतु हर बार वह कहता-
-' नहीं भगवन ' ! और सो जाता । अंतिम बार तथागत ने पूछा-- " वत्स ! जीवित हो । "
पहले की तरह उसने उत्तर दिया-- " नहीं भगवन ! " श्रोताओं में हँसी की लहर दौड़ गई । भगवान बुद्ध गंभीर होकर बोले-- " वत्स ! निद्रा में तुमसे सही उत्तर निकल गया, जो निद्रा में हैं, वह मृतक समान हैं । जब तक हम विवेक और प्रज्ञा में नहीं जागते, तब तक हम मृतक के ही समान है ।
बीमारियों का प्रमुख कारण रोगाणुओं के आक्रमण, अपच एवं कुपोषण आदि को माना जाता है । इस तरह की बीमारियों के शिकार अधिकतर पिछड़े लोग ही बनते हैं जबकि विकसित एवं साधन संपन्न लोग शिक्षा, संपन्नता एवं बुद्धि का दुरूपयोग करने के कारण तनाव और तनाव से उत्पन्न बीमारियों से ग्रसित देखे जाते हैं । नशेबाजी, विलासिता, आपाधापी, शेखीखोरी जैसी दुष्प्रवृतियां न केवल व्यवहार, वरन चिंतन-मनन, एवं गुण, कर्म और स्वभाव पर भी छाई रहती हैं । परिणामस्वरुप शरीर और मन दोनों की शक्तियों का अंधाधुंध अपव्यय होता है और दोनों क्षेत्रों पर छाई रहने वाली दुष्प्रवृतियां अंतत: चित्र-विचित्र रोगों के रूप में फूटती हैं । महंगे टानिक और दवाइयों से इनपर नियंत्रण पाना आसान नहीं है ।
समग्र स्वास्थ्य संवर्द्धन की दिशा में तभी आगे बढ़ा और जीवन का सच्चा आनंद उठाया जा सकता है, जब गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार में उत्कृष्टता का समावेश किया जा सके ।
भगवान बुद्ध एक रात्रि प्रवचन कर रहे थे । प्रवचन सुनने के लिये बैठे हुए व्यक्तियों में से एक व्यक्ति बार-बार नींद के झोंके ले रहा था । तथागत ने उस ऊँघते व्यक्ति से कहा-- " वत्स ! सोते हो । " हड़बड़ाकर उस व्यक्ति ने कहा-- " नहीं भगवान ! ' प्रवचन पूर्ववत चालू हो गया और वह व्यक्ति फिर ऊँघने लगा । भगवान बुद्ध ने उसे तीन-चार बार जगाया परंतु हर बार वह कहता-
-' नहीं भगवन ' ! और सो जाता । अंतिम बार तथागत ने पूछा-- " वत्स ! जीवित हो । "
पहले की तरह उसने उत्तर दिया-- " नहीं भगवन ! " श्रोताओं में हँसी की लहर दौड़ गई । भगवान बुद्ध गंभीर होकर बोले-- " वत्स ! निद्रा में तुमसे सही उत्तर निकल गया, जो निद्रा में हैं, वह मृतक समान हैं । जब तक हम विवेक और प्रज्ञा में नहीं जागते, तब तक हम मृतक के ही समान है ।
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