आदिशक्ति शब्द से बोध होता है----- शक्ति का मूल स्रोत । आदिशक्ति की लीलाकथा जीवन में भक्ति के साथ शक्ति का समन्वय सिखाती हैं ।
दुर्गा समर्थ हैं उनकी शक्ति असीम व अनंत है, लेकिन सर्वोपरि वे माँ हैं । वात्सल्य उनका स्वभाव, करुणा उनकी प्रकृति है । यों तो सभी उनकी संताने हैं, फिर भी वह दुष्टों को दंड देने के लिये तत्पर रहती हैं ।
प्रखर पराक्रम एवं सजल सदभाव----- इन दोनों भावों की समर्थ अभिव्यक्ति उनके गायत्री रूप में होती है ।
शक्ति एवं भक्ति का समन्वय जो अपने जीवन में कर लेता है वही सही व सम्यक रीति से जीवन पथ पर गति करता है ।
समन्वय के अभाव में अकेली शक्ति व्यक्ति को उन्मादी व अहंकारी बना देती है । शक्ति के साथ भक्ति न होने पर विवेक नहीं रह जाता । ऐसे व्यक्ति अपनी शक्ति का प्रयोग गिरे को उठाने में नहीं] बल्कि उठे को गिराने में करते है ।
इसी तरह जब भक्ति शक्ति से विहीन हो जाती है, तो व्यक्ति कर्म से विमुख हो जाता है । उसके अंदर सदभाव तो रहते हैं, पर शक्ति के बिना उनकी सार्थक व समर्थ अभिव्यक्ति नहीं होती । परिष्कृत भाव के साथ समर्थ कर्मों का सुयोग भक्ति के साथ शक्ति के समन्वय से ही हो पाता है ।
दुर्गा समर्थ हैं उनकी शक्ति असीम व अनंत है, लेकिन सर्वोपरि वे माँ हैं । वात्सल्य उनका स्वभाव, करुणा उनकी प्रकृति है । यों तो सभी उनकी संताने हैं, फिर भी वह दुष्टों को दंड देने के लिये तत्पर रहती हैं ।
प्रखर पराक्रम एवं सजल सदभाव----- इन दोनों भावों की समर्थ अभिव्यक्ति उनके गायत्री रूप में होती है ।
शक्ति एवं भक्ति का समन्वय जो अपने जीवन में कर लेता है वही सही व सम्यक रीति से जीवन पथ पर गति करता है ।
समन्वय के अभाव में अकेली शक्ति व्यक्ति को उन्मादी व अहंकारी बना देती है । शक्ति के साथ भक्ति न होने पर विवेक नहीं रह जाता । ऐसे व्यक्ति अपनी शक्ति का प्रयोग गिरे को उठाने में नहीं] बल्कि उठे को गिराने में करते है ।
इसी तरह जब भक्ति शक्ति से विहीन हो जाती है, तो व्यक्ति कर्म से विमुख हो जाता है । उसके अंदर सदभाव तो रहते हैं, पर शक्ति के बिना उनकी सार्थक व समर्थ अभिव्यक्ति नहीं होती । परिष्कृत भाव के साथ समर्थ कर्मों का सुयोग भक्ति के साथ शक्ति के समन्वय से ही हो पाता है ।
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