' शरीर से कोई भी कड़ा तप किया जा सकता है, पर यदि मन उन विषयों में आसक्त है, तो वह तप भी निरर्थक है । '
जहाँ आत्मसंयम नहीं है, वहां किसी भी सद्गुण के विकास की--- व्यक्तित्व के परिष्कार की तनिक भी संभावना नहीं है । असंयमी व्यक्ति को न किसी प्रकार की शिक्षा रुचिकर लगती है और न ही वह अपना संस्कृतिक विकास चाहता है । विषयों के पीछे भाग रहा कामी मन अपनी ही काया को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है ।
बुद्धिमान प्रतीत होने वाला व्यक्ति भी विषयों के आकर्षण से मोहित होकर मूर्खतापूर्ण कार्य करने लगता है । फिर कम बुद्धि वाले व्यक्ति का तो कहना ही क्या ?
राजा नहुष को पुण्यफल के बदले इंद्रासन प्राप्त हुआ । वे स्वर्ग में राज्य करने लगे । ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे ऐसे कोई बिरले ही होते हैं । नहुष भी सत्तामद से प्रभावित हुए बिना न रह सके, उनकी द्रष्टि रूपवती इंद्राणी पर पड़ी । वे उसे अपने अंत:पुर में लाने की विचारणा करने लगे । उन्होंने प्रस्ताव इंद्राणी के पास भेज ही दिया ।
इंद्राणी बहुत दुःखी हुईं । राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उनने अपने में नहीं पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती । नहुष के पास उनने संदेश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आये तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी ।
आतुर नहुष ने अविलंब वैसी व्यवस्था की । ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उन पर चढ़ा हुआ राजा उनसे जल्दी-जल्दी चलने के लिये कहने लगा ।
दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर चलने में समर्थ न हो सके । अपमान और उत्पीड़न से क्षुब्ध हो उठे । एक ने कुपित होकर शाप दे ही दिया--- " दुष्ट ! तू स्वर्ग से पतित होकर, पुन: धरती पर जा गिर "
नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की तरह विचरण करने लगे ।
मन को किसी रचनात्मक-उच्च लक्ष्य के साथ जोड़ने, निष्काम कर्म करने और कर्तव्य-कर्म करने के साथ ईश्वर का स्मरण करने से चंचल मन पर, इंद्रियों पर काबू पाया जा सकता है ।
जहाँ आत्मसंयम नहीं है, वहां किसी भी सद्गुण के विकास की--- व्यक्तित्व के परिष्कार की तनिक भी संभावना नहीं है । असंयमी व्यक्ति को न किसी प्रकार की शिक्षा रुचिकर लगती है और न ही वह अपना संस्कृतिक विकास चाहता है । विषयों के पीछे भाग रहा कामी मन अपनी ही काया को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है ।
बुद्धिमान प्रतीत होने वाला व्यक्ति भी विषयों के आकर्षण से मोहित होकर मूर्खतापूर्ण कार्य करने लगता है । फिर कम बुद्धि वाले व्यक्ति का तो कहना ही क्या ?
राजा नहुष को पुण्यफल के बदले इंद्रासन प्राप्त हुआ । वे स्वर्ग में राज्य करने लगे । ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे ऐसे कोई बिरले ही होते हैं । नहुष भी सत्तामद से प्रभावित हुए बिना न रह सके, उनकी द्रष्टि रूपवती इंद्राणी पर पड़ी । वे उसे अपने अंत:पुर में लाने की विचारणा करने लगे । उन्होंने प्रस्ताव इंद्राणी के पास भेज ही दिया ।
इंद्राणी बहुत दुःखी हुईं । राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उनने अपने में नहीं पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती । नहुष के पास उनने संदेश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आये तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी ।
आतुर नहुष ने अविलंब वैसी व्यवस्था की । ऋषि पकड़ बुलाये, उन्हें पालकी में जोता गया, उन पर चढ़ा हुआ राजा उनसे जल्दी-जल्दी चलने के लिये कहने लगा ।
दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर चलने में समर्थ न हो सके । अपमान और उत्पीड़न से क्षुब्ध हो उठे । एक ने कुपित होकर शाप दे ही दिया--- " दुष्ट ! तू स्वर्ग से पतित होकर, पुन: धरती पर जा गिर "
नहुष स्वर्ग से पतित होकर मृत्यु लोक में दीन-हीन की तरह विचरण करने लगे ।
मन को किसी रचनात्मक-उच्च लक्ष्य के साथ जोड़ने, निष्काम कर्म करने और कर्तव्य-कर्म करने के साथ ईश्वर का स्मरण करने से चंचल मन पर, इंद्रियों पर काबू पाया जा सकता है ।
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