मन में सृजन की अपार संभावनाएँ सन्निहित हैं । मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है । इस निर्माण प्रक्रिया में मन का महत्वपूर्ण योगदान है । मन का चिंतन ही उसका परिणाम है । यह जैसा सोचता है और प्रयत्न करता है वैसा ही उसका फल मिलता है । सतत अभ्यास द्वारा मन को शक्तिशाली बनाना संभव है । श्रेष्ठ चिंतन से और निष्काम कर्म से मन निर्मल होने लगता है ।
मन एक देहरी पर खड़ा नीचे द्रश्य जगत की ओर झाँक सकता है और ऊपर चेतना के उच्चस्तरीय आयामों में भी गति कर सकता है । मन को साध लेने पर यह वरदान बन जाता है ।
भीष्म पितामह ने राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा के लिए एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराई थीं । पांडवों ने उनमे से शालीनता-सहयोग का मार्ग चुना, कौरवों ने उदंडता और द्वेष का । दोनों ने मार्ग के अनुसार गति पाई ।
भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों को चुनाव का समान अधिकार दिया था । एक ने साधन-वैभव, सेना की चाह की, दूसरे ने मार्गदर्शन की । जो मार्ग चुना गया, उसी के अनुरूप गति मिली
मन एक देहरी पर खड़ा नीचे द्रश्य जगत की ओर झाँक सकता है और ऊपर चेतना के उच्चस्तरीय आयामों में भी गति कर सकता है । मन को साध लेने पर यह वरदान बन जाता है ।
भीष्म पितामह ने राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा के लिए एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध कराई थीं । पांडवों ने उनमे से शालीनता-सहयोग का मार्ग चुना, कौरवों ने उदंडता और द्वेष का । दोनों ने मार्ग के अनुसार गति पाई ।
भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों को चुनाव का समान अधिकार दिया था । एक ने साधन-वैभव, सेना की चाह की, दूसरे ने मार्गदर्शन की । जो मार्ग चुना गया, उसी के अनुरूप गति मिली
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