जीवन की सच्चाई यही है कि इंद्रिय विषयों को कोई अपनी मरजी, संकल्प या प्रतिज्ञा से नहीं छोड़ पाता । यह तो बस मन के परिष्कृत होने पर, मन की अवस्था बदलने पर ही छूट पाते हैं ,
मन में भगवान के प्रति प्रेम, भगवान के स्मरण एवं भक्ति उत्पन्न होने से मन परिष्कृत होता है, मन का भटकाव रुकता है । कभी-कभी जीवन के कड़वे - कठिन अनुभव अन्तर्विवेक को जगा देते हैं
एक वृद्ध व्यक्ति अपने घर की खिड़की के पास बैठकर अपने जीवन का सिंहावलोकन कर रहा था------ हँसता-खेलता बचपन बीता------ युवावस्था-----जीवन उपभोग में गँवा दिया----- प्रौढ़ावस्था का स्मरण हो आया----- न वह यौवन रहा, न लावण्य, न वे उमंगें ।
व्रत, उपवास, तीर्थयात्रा, कथाश्रवण आदि किया, पर मन को जरा भी संतोष नहीं मिला । वृद्ध चिल्ला उठा---- " हाय समय ! मैंने तुझे क्यों खो दिया ? " वृद्ध फूट-फूटकर रोने लगा ।
वृद्ध ने देखा--- क्षीण प्रकाश खिड़की से अंदर आ रहा है, जो उसे संदेश दे रहा है-----
" वत्स ! शोक मत करो । जो बीत गया वह आ नहीं सकता । अभी आगे के कई क्षण बाकी हैं । वे भी कम नहीं । उन्हें सँभालो । उठो ! अपने जीवन की दिशा बदल डालो-----
यह संसार परमात्मा की ही प्रतिमूर्ति है । सारी विश्व-वसुधा, जीवों को ईश्वर का घटक मानकर उनके प्रति संवेदनशील बनो । व्यवहार में उदारता एवं सहिष्णुता को अपनाकर सतत सत्कर्म करो "
वह धन्य हो गया । अंतिम क्षणों को आत्मपरिष्कार और लोकसेवा में लगाकर जीवन सफल बना लिया ।
मन में भगवान के प्रति प्रेम, भगवान के स्मरण एवं भक्ति उत्पन्न होने से मन परिष्कृत होता है, मन का भटकाव रुकता है । कभी-कभी जीवन के कड़वे - कठिन अनुभव अन्तर्विवेक को जगा देते हैं
एक वृद्ध व्यक्ति अपने घर की खिड़की के पास बैठकर अपने जीवन का सिंहावलोकन कर रहा था------ हँसता-खेलता बचपन बीता------ युवावस्था-----जीवन उपभोग में गँवा दिया----- प्रौढ़ावस्था का स्मरण हो आया----- न वह यौवन रहा, न लावण्य, न वे उमंगें ।
व्रत, उपवास, तीर्थयात्रा, कथाश्रवण आदि किया, पर मन को जरा भी संतोष नहीं मिला । वृद्ध चिल्ला उठा---- " हाय समय ! मैंने तुझे क्यों खो दिया ? " वृद्ध फूट-फूटकर रोने लगा ।
वृद्ध ने देखा--- क्षीण प्रकाश खिड़की से अंदर आ रहा है, जो उसे संदेश दे रहा है-----
" वत्स ! शोक मत करो । जो बीत गया वह आ नहीं सकता । अभी आगे के कई क्षण बाकी हैं । वे भी कम नहीं । उन्हें सँभालो । उठो ! अपने जीवन की दिशा बदल डालो-----
यह संसार परमात्मा की ही प्रतिमूर्ति है । सारी विश्व-वसुधा, जीवों को ईश्वर का घटक मानकर उनके प्रति संवेदनशील बनो । व्यवहार में उदारता एवं सहिष्णुता को अपनाकर सतत सत्कर्म करो "
वह धन्य हो गया । अंतिम क्षणों को आत्मपरिष्कार और लोकसेवा में लगाकर जीवन सफल बना लिया ।
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