प्रख्यात मनीषी बर्ट्रेंड रसेल अपनी पुस्तक ' सुखमय जीवन ' में लिखते हैं कि संसार में दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं--- एक जो संसार में रहकर धन बटोरने मे लगे हैं, दूसरे वे जिनने संपदा का परित्याग कर दिया और जंगल में जाकर आदि मानवों की तरह रहने लगे हैं । पर इन दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है, दोनों ही भ्रांति में हैं ।
स्वार्थ में फंसे लोग समझते हैं कि बाह्य साधन सुविधाओं से अपने को भर लेंगे तो चैन पा जायेंगे, जबकि सन्यासी समझते हैं कि बाहरी चीजों को लात मार देने भर से आनंद की उपलब्धि हो जायेगी । वस्तुत: न तो बाहर की वस्तुओं से कभी कोई स्वयं को भर सकता है और न उसका परित्याग कर ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि भराव का, प्राप्ति का बाहर से कोई संबंध है ही नहीं, वह तो सर्वथा आंतरिक है ।
यदि व्यक्ति अपने अंतस को सँवार ले तो किसी भी स्थिति में रहे सुख प्राप्त कर सकता है, चाहे वह सुविधाओं में रहे अथवा असुविधा-अभावों में, हर हाल में वह आनंद की अनुभूति कर सकता है । यह आंतरिक अवस्था उपलब्ध होने पर न तो उसे संसार त्यागने की आवश्यकता अनुभव होगी, और न कर्तव्य-कर्म को तिलांजलि देकर धर्म लाभ के नाम पर एकांत सेवन का प्रपंच रचने की ।
स्वार्थ में फंसे लोग समझते हैं कि बाह्य साधन सुविधाओं से अपने को भर लेंगे तो चैन पा जायेंगे, जबकि सन्यासी समझते हैं कि बाहरी चीजों को लात मार देने भर से आनंद की उपलब्धि हो जायेगी । वस्तुत: न तो बाहर की वस्तुओं से कभी कोई स्वयं को भर सकता है और न उसका परित्याग कर ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि भराव का, प्राप्ति का बाहर से कोई संबंध है ही नहीं, वह तो सर्वथा आंतरिक है ।
यदि व्यक्ति अपने अंतस को सँवार ले तो किसी भी स्थिति में रहे सुख प्राप्त कर सकता है, चाहे वह सुविधाओं में रहे अथवा असुविधा-अभावों में, हर हाल में वह आनंद की अनुभूति कर सकता है । यह आंतरिक अवस्था उपलब्ध होने पर न तो उसे संसार त्यागने की आवश्यकता अनुभव होगी, और न कर्तव्य-कर्म को तिलांजलि देकर धर्म लाभ के नाम पर एकांत सेवन का प्रपंच रचने की ।
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