' चरित्र जलती हुई मशाल के समान होता है, इसका प्रकाश दिव्य एवं पावन होता है । ' अध्यात्म को चरित्र से परिभाषित किया जाना चाहिए, न कि चमत्कारों से ।
एक बार चैतन्य महाप्रभु को उनके एक शिष्य ने कहा--- प्रभो ! इतने लोग भावविह्वल होकर आपके साथ कीर्तन करते हैं, परंतु उनका जीवन वहीँ का वहीँ बना क्यों रहता है ? व्यक्तित्व ढलता क्यों नहीं है ? चैतन्य महाप्रभु ने कहा---- ' दरअसल दिखाया सब कुछ जाता है पर किया कुछ नहीं जाता है । जीवन असंयम के छिद्रों से अटा पड़ा है, पात्र फूटा है, चरित्र कमजोर है । अत: ऊर्जा संचित नहीं हो पाती और सब कुछ होने के बावजूद व्यक्तित्व बदलता नहीं है । अध्यात्म पाने की पहली शर्त है--- चरित्रवान होना ।
शिष्य की जिज्ञासा बढ़ती गई, उसने पूछा---- प्रभो ! चरित्र को बदला-गढ़ा कैसे जाये, परिवर्तित कैसे किया जाये ? महाप्रभु ने कहा---- सबसे पहले हमें चरित्र संबंधी भ्रांत धारणा को निर्मूल करना चाहिए क्योंकि हमने चरित्र को संकीर्णता के छोटे से दायरे में कैद कर दिया है । हम चरित्र को स्त्री-पुरुष के संबंधों के दायरे में देखने के अभ्यस्त हो गये हैं । कोई व्यक्ति जो इन संबंधों में ठीक बरताव करता है, भले ही उसका अंतस विषय-वासना से भरा ही क्यों न हो, उसे हम चरित्रवान समझते हैं । हम कहते हैं वह चोरी करता है तो क्या हुआ ? रिश्वत लेता है तो क्या हुआ ? कोई अवैध संबंध तो नहीं रखता, तो वह चरित्रवान हुआ । यह संबंध चरित्र का मात्र एक भाग हो सकता है, संपूर्ण और समग्र नहीं । चरित्र सभी गुणों की कसौटी खरा उतरना है ।
अध्यात्म व्यक्तित्व ढालने की टकसाल है, चरित्र निर्माण की प्रयोगशाला है ।
चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रक्रिया को समझाया कि कैसे चरित्र को गढ़ा जाये, कैसे अपने व्यक्तित्व में घोला जाये------- युवा वर्ग के लड़के-लड़कियों को ऐसी कोई विशेषता जो अपनी प्रकृति के अनुकूल हो, अपनानी चाहिए जैसे-- सेवाभाव, सच बोलने की आदत, ईमानदारी, कर्तव्यपालन, शिष्ट शालीन व्यवहार आदि । इसे अपने व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनाने का अभ्यास करना चाहिए । व्यक्तित्व में इस विशेषता को ढालने के लिये समय लगता है, यदि कोई धैर्यपूर्वक चरित्ररूपी उस साधना को कर लेता है तो व्यक्तित्व में उस विशेषता से युक्त चरित्र चमक उठेगा । प्रौढावस्था में भी इसी तरह चरित्र को गढ़ा जा सकता है , असंभव कुछ भी नहीं है ।
एक बार चैतन्य महाप्रभु को उनके एक शिष्य ने कहा--- प्रभो ! इतने लोग भावविह्वल होकर आपके साथ कीर्तन करते हैं, परंतु उनका जीवन वहीँ का वहीँ बना क्यों रहता है ? व्यक्तित्व ढलता क्यों नहीं है ? चैतन्य महाप्रभु ने कहा---- ' दरअसल दिखाया सब कुछ जाता है पर किया कुछ नहीं जाता है । जीवन असंयम के छिद्रों से अटा पड़ा है, पात्र फूटा है, चरित्र कमजोर है । अत: ऊर्जा संचित नहीं हो पाती और सब कुछ होने के बावजूद व्यक्तित्व बदलता नहीं है । अध्यात्म पाने की पहली शर्त है--- चरित्रवान होना ।
शिष्य की जिज्ञासा बढ़ती गई, उसने पूछा---- प्रभो ! चरित्र को बदला-गढ़ा कैसे जाये, परिवर्तित कैसे किया जाये ? महाप्रभु ने कहा---- सबसे पहले हमें चरित्र संबंधी भ्रांत धारणा को निर्मूल करना चाहिए क्योंकि हमने चरित्र को संकीर्णता के छोटे से दायरे में कैद कर दिया है । हम चरित्र को स्त्री-पुरुष के संबंधों के दायरे में देखने के अभ्यस्त हो गये हैं । कोई व्यक्ति जो इन संबंधों में ठीक बरताव करता है, भले ही उसका अंतस विषय-वासना से भरा ही क्यों न हो, उसे हम चरित्रवान समझते हैं । हम कहते हैं वह चोरी करता है तो क्या हुआ ? रिश्वत लेता है तो क्या हुआ ? कोई अवैध संबंध तो नहीं रखता, तो वह चरित्रवान हुआ । यह संबंध चरित्र का मात्र एक भाग हो सकता है, संपूर्ण और समग्र नहीं । चरित्र सभी गुणों की कसौटी खरा उतरना है ।
अध्यात्म व्यक्तित्व ढालने की टकसाल है, चरित्र निर्माण की प्रयोगशाला है ।
चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रक्रिया को समझाया कि कैसे चरित्र को गढ़ा जाये, कैसे अपने व्यक्तित्व में घोला जाये------- युवा वर्ग के लड़के-लड़कियों को ऐसी कोई विशेषता जो अपनी प्रकृति के अनुकूल हो, अपनानी चाहिए जैसे-- सेवाभाव, सच बोलने की आदत, ईमानदारी, कर्तव्यपालन, शिष्ट शालीन व्यवहार आदि । इसे अपने व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनाने का अभ्यास करना चाहिए । व्यक्तित्व में इस विशेषता को ढालने के लिये समय लगता है, यदि कोई धैर्यपूर्वक चरित्ररूपी उस साधना को कर लेता है तो व्यक्तित्व में उस विशेषता से युक्त चरित्र चमक उठेगा । प्रौढावस्था में भी इसी तरह चरित्र को गढ़ा जा सकता है , असंभव कुछ भी नहीं है ।
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