' यदि चिंतन की धारा उत्कृष्टता की ओर मुड़ जाये तो व्यक्ति संत, सज्जन, महान, परमार्थपरायण बन सकता है । '
आज मनुष्य भौतिकवादी, भोगवादी बन चुका है । उसी का परिणाम है कि सर्वत्र अशांति, कलह, हिंसा, पाप, अधर्म, दुःख-दैन्य अपनी चीख-पुकार मचाए हुए है । मानवता क्षत-विक्षत और घायल होकर कराह रही है । मनुष्य केवल आकृति से मनुष्य रह गया है, उसकी प्रकृति तो राक्षसी हो चली चारों ओर अनैतिकता, आतंक, अराजकता और आतंक का बोल-बाला है । व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र हर कहीं दरारें ही दरारें हैं । हर कहीं टूटन और बिखराव है । मानवीय द्रष्टि और जीवन मूल्य खोजने पर भी नहीं मिल पा रहे ।
इन सबका मूल और मौलिक कारण यही है कि हमने आत्म-पक्ष को भुला दिया, हम मात्र शारीरिक सुख-साधनों और भौतिक उन्नति को जीवन का परम लक्ष्य मान बैठे हैं । मद और स्वार्थ में अंधे होकर दौड़े जा रहें हैं । कहां जाना है किसी को कुछ पता नहीं ?
मनुष्य बाहर की दुनिया में जितनी भाग-दौड़ करता है, उतना ही वह आत्मिक आनंद से दूर होता जाता है । धन से तो बस देह एवं संसार के सुख-साधन खरीदे जा सकते हैं, इसीलिए आज की दुनिया अंदर से खोखली हो चुकी है और इस खोखलेपन को भरने के लिये शराब, जुआ, सिनेमा, क्लब, पार्टी की ओर दौड़ तेज हुई है । मनुष्य जितना सांसारिक विषय-भोगों को पाता और भोगता जाता है, उतनी ही और---- और की प्यास तेज होने लगती है । जीवन के अंत में पता चलता है कि जीवन के बोध के बिना सारी दौड़ बेकार रही ।
हम बहुत खो चुके, बहुत सो चुके । अब अपने जीवन को ऊँचा उठाने का, आचार विचार सुधारने का संकल्प लें । भौतिकता और आध्यात्मिकता, भोग और योग का समन्वय करके चलें । धन कमाना, उसे संचित करना गलत नहीं है, गलत है धन के प्रति अत्याधिक आसक्ति रखना, धन के लिये परेशान रहना और अपने कीमती मानव जीवन को व्यर्थ गँवा देना ।
मनुष्य के किये गये शुभ कर्म ही उसकी सहायता करते हैं और अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । अपने आत्म-सुधार के लिये एक नया पग आगे बढ़ाएं जिसमे पाप, अधर्म, अन्याय, बुराई को छोड़ने की ललक हो, बेचैनी हो और जीवन को पवित्र बनाने और ऊँचा उठाने का संकल्प हो ।
आज मनुष्य भौतिकवादी, भोगवादी बन चुका है । उसी का परिणाम है कि सर्वत्र अशांति, कलह, हिंसा, पाप, अधर्म, दुःख-दैन्य अपनी चीख-पुकार मचाए हुए है । मानवता क्षत-विक्षत और घायल होकर कराह रही है । मनुष्य केवल आकृति से मनुष्य रह गया है, उसकी प्रकृति तो राक्षसी हो चली चारों ओर अनैतिकता, आतंक, अराजकता और आतंक का बोल-बाला है । व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र हर कहीं दरारें ही दरारें हैं । हर कहीं टूटन और बिखराव है । मानवीय द्रष्टि और जीवन मूल्य खोजने पर भी नहीं मिल पा रहे ।
इन सबका मूल और मौलिक कारण यही है कि हमने आत्म-पक्ष को भुला दिया, हम मात्र शारीरिक सुख-साधनों और भौतिक उन्नति को जीवन का परम लक्ष्य मान बैठे हैं । मद और स्वार्थ में अंधे होकर दौड़े जा रहें हैं । कहां जाना है किसी को कुछ पता नहीं ?
मनुष्य बाहर की दुनिया में जितनी भाग-दौड़ करता है, उतना ही वह आत्मिक आनंद से दूर होता जाता है । धन से तो बस देह एवं संसार के सुख-साधन खरीदे जा सकते हैं, इसीलिए आज की दुनिया अंदर से खोखली हो चुकी है और इस खोखलेपन को भरने के लिये शराब, जुआ, सिनेमा, क्लब, पार्टी की ओर दौड़ तेज हुई है । मनुष्य जितना सांसारिक विषय-भोगों को पाता और भोगता जाता है, उतनी ही और---- और की प्यास तेज होने लगती है । जीवन के अंत में पता चलता है कि जीवन के बोध के बिना सारी दौड़ बेकार रही ।
हम बहुत खो चुके, बहुत सो चुके । अब अपने जीवन को ऊँचा उठाने का, आचार विचार सुधारने का संकल्प लें । भौतिकता और आध्यात्मिकता, भोग और योग का समन्वय करके चलें । धन कमाना, उसे संचित करना गलत नहीं है, गलत है धन के प्रति अत्याधिक आसक्ति रखना, धन के लिये परेशान रहना और अपने कीमती मानव जीवन को व्यर्थ गँवा देना ।
मनुष्य के किये गये शुभ कर्म ही उसकी सहायता करते हैं और अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करते हैं । अपने आत्म-सुधार के लिये एक नया पग आगे बढ़ाएं जिसमे पाप, अधर्म, अन्याय, बुराई को छोड़ने की ललक हो, बेचैनी हो और जीवन को पवित्र बनाने और ऊँचा उठाने का संकल्प हो ।
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