महर्षि आश्वलायन के विषय में विख्यात था कि उनके द्वारा शिक्षा प्राप्त शिष्य जीवन में उन्नति को, उत्कर्ष को प्राप्त करता है । परंतु आज महर्षि चिंतित थे क्योंकि निकटवर्ती राज्य का सेनापति पुष्यमित्र महर्षि से यह बताने आया था कि उसके राज्य में जिस दस्यु ने समस्त राज्य को भयाक्रांत कर रखा है, वह और कोई नहीं वरन महर्षि का पूर्व शिष्य देवदत्त था ।
ऐसा आज तक नहीं हुआ कि महर्षि के किसी शिष्य ने पतन का मार्ग चुना हो । यह पहली बार था कि उनके किसी शिष्य के दस्यु बनने का समाचार उन्हें मिला , उन्होंने पुष्यमित्र से कहा---- " देर न करो, मुझे देवदत्त के पास ले चलो । " महर्षि का संकल्प सुनकर पुष्यमित्र ने कहा---- " वह सैकड़ों निरपराधों को मृत्यु के द्वार पहुंचा चुका है, उसे अपने इस अपराध का बोध ही नहीं है । यदि दुर्भाग्य से उसने आपको कोई क्षति पहुँचा दी तो मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर सकूँगा । "
महर्षि ने कहा---- " वत्स ! गुरु का दायित्व अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना होता है, यदि आज मैं अपने दायित्व से विमुख हो जाउँगा तो आने वाली पीढ़ी को किस आधार पर सत्याचरण और धर्माचरण की शिक्षा दे पाउँगा । "
चलते-चलते महर्षि और सेनापति पुष्यमित्र देवदत्त के ठिकाने पर पहुँचे । विषाक्त वातावरण में पतन के पथ पर चलने के कारण वह जैसे महर्षि को भूल गया था, वह आश्चर्यचकित था कि यह कौन व्यक्ति है, जो इतनी निर्भीकता के साथ उसके समक्ष खड़ा है ।
प्रेम से स्निग्ध स्वरों के साथ महर्षि बोले---- " कैसे हो पुत्र देवदत्त ! क्या घर की याद नहीं आती ? "
इतने वर्षों में इतने प्रेम के साथ पहली बार किसी ने पुकारा था । देवदत्त के हाथ तलवार सहित काँपने लगे, वह महर्षि के चरणों में गिर पड़ा ।
प्रेम से उसके मस्तक पर हाथ फेरते हुए महर्षि बोले---- " पुत्र देवदत्त ! मेरी शिक्षा में क्या कमी रह गई थी, जो आज हमारी-तुम्हारी भेंट इस मोड़ पर हुई है । जीवन तुम्हे यहाँ कैसे ले आया पुत्र। "
देवदत्त ने उत्तर दिया----- "गुरुदेव ! कमी आपकी शिक्षा में नहीं, मेरी पात्रता में थी । मेरे पिता राज्य के मंत्री अवश्य थे, परंतु उनकी प्रवृति दूषित थी । गुरुकुल से लौटने के उपरांत मैंने प्राप्त शिक्षाओं के अनुसरण का भरसक प्रयत्न किया, परंतु परिवार में संव्याप्त कलुषित चिंतन ने मुझे इस पथ पर ला पटका । आज आपके प्रेम ने मुझे वो सभी शिक्षाएँ पुन: याद दिला दीं । मुझसे भयंकर भूल हुई , मुझे क्षमा करें गुरुदेव । " महर्षि बोले--- " पुत्र ! उत्थान और पतन तो जीवन की स्वाभाविक दशाएं हैं, भूल तो मनुष्य से होती ही है । यदि तुम क्षमा चाहते हो तो उन निर्दोषों के घरों को पुन: नवजीवन दो, जो तुमने अज्ञानवश नष्ट किये हैं । हर उस पीड़ित व्यक्ति से निकलते क्षमा के स्वर तुम्हारे जीवन को स्वत: ही सुगंध से भर देंगे । " देवदत्त को जीवन की सही दिशा मिल गई
ऐसा आज तक नहीं हुआ कि महर्षि के किसी शिष्य ने पतन का मार्ग चुना हो । यह पहली बार था कि उनके किसी शिष्य के दस्यु बनने का समाचार उन्हें मिला , उन्होंने पुष्यमित्र से कहा---- " देर न करो, मुझे देवदत्त के पास ले चलो । " महर्षि का संकल्प सुनकर पुष्यमित्र ने कहा---- " वह सैकड़ों निरपराधों को मृत्यु के द्वार पहुंचा चुका है, उसे अपने इस अपराध का बोध ही नहीं है । यदि दुर्भाग्य से उसने आपको कोई क्षति पहुँचा दी तो मैं स्वयं को कभी क्षमा नहीं कर सकूँगा । "
महर्षि ने कहा---- " वत्स ! गुरु का दायित्व अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना होता है, यदि आज मैं अपने दायित्व से विमुख हो जाउँगा तो आने वाली पीढ़ी को किस आधार पर सत्याचरण और धर्माचरण की शिक्षा दे पाउँगा । "
चलते-चलते महर्षि और सेनापति पुष्यमित्र देवदत्त के ठिकाने पर पहुँचे । विषाक्त वातावरण में पतन के पथ पर चलने के कारण वह जैसे महर्षि को भूल गया था, वह आश्चर्यचकित था कि यह कौन व्यक्ति है, जो इतनी निर्भीकता के साथ उसके समक्ष खड़ा है ।
प्रेम से स्निग्ध स्वरों के साथ महर्षि बोले---- " कैसे हो पुत्र देवदत्त ! क्या घर की याद नहीं आती ? "
इतने वर्षों में इतने प्रेम के साथ पहली बार किसी ने पुकारा था । देवदत्त के हाथ तलवार सहित काँपने लगे, वह महर्षि के चरणों में गिर पड़ा ।
प्रेम से उसके मस्तक पर हाथ फेरते हुए महर्षि बोले---- " पुत्र देवदत्त ! मेरी शिक्षा में क्या कमी रह गई थी, जो आज हमारी-तुम्हारी भेंट इस मोड़ पर हुई है । जीवन तुम्हे यहाँ कैसे ले आया पुत्र। "
देवदत्त ने उत्तर दिया----- "गुरुदेव ! कमी आपकी शिक्षा में नहीं, मेरी पात्रता में थी । मेरे पिता राज्य के मंत्री अवश्य थे, परंतु उनकी प्रवृति दूषित थी । गुरुकुल से लौटने के उपरांत मैंने प्राप्त शिक्षाओं के अनुसरण का भरसक प्रयत्न किया, परंतु परिवार में संव्याप्त कलुषित चिंतन ने मुझे इस पथ पर ला पटका । आज आपके प्रेम ने मुझे वो सभी शिक्षाएँ पुन: याद दिला दीं । मुझसे भयंकर भूल हुई , मुझे क्षमा करें गुरुदेव । " महर्षि बोले--- " पुत्र ! उत्थान और पतन तो जीवन की स्वाभाविक दशाएं हैं, भूल तो मनुष्य से होती ही है । यदि तुम क्षमा चाहते हो तो उन निर्दोषों के घरों को पुन: नवजीवन दो, जो तुमने अज्ञानवश नष्ट किये हैं । हर उस पीड़ित व्यक्ति से निकलते क्षमा के स्वर तुम्हारे जीवन को स्वत: ही सुगंध से भर देंगे । " देवदत्त को जीवन की सही दिशा मिल गई
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