अब्दुल रहीम खानखाना कृष्ण के परम भक्त थे । भक्ति में जाति का नहीं, ह्रदय का स्थान होता है और यही वजह है कि मजहब की द्रष्टि से मुसलमान होते हुए भी रहीम कृष्णभक्ति की भावधारा में सदा सराबोर बने रहे ।
बचपन से रहीम प्रतिभा के धनी थे । वे औरों की सेवा-सहायता में निष्काम भाव से निरत रहते थे । वैराग्य और भक्ति ने उनको सर्वथा निडर, निर्भीक एवं पुरुषार्थी बना दिया था और इसी कारण अकबर ने उनको अपने नवरत्नों में शामिल किया था ।
एक दिन अकबर के दरबार में रहीम बैठे हुए थे । उस दिन वे अपने प्रभु कृष्ण के ध्यान में इतने डूब गये कि उन्हें इसका भान तक नहीं था कि दरबार में क्या हो रहा है । अकबर ने उन्हें आवाज दी तो जैसे वे ध्यान की गहराई से जाग पड़े और कहा--- " जी जहाँपनाह !"
अकबर बोले--- ' आप इतने अन्यमनस्क न रहा करें, कहीं कोई शत्रु इस मौके का लाभ उठाकर आप पर आक्रमण कर दे तो------- "। रहीम ने कहा---- " जो भगवान पर आश्रित होता है, भगवान उसकी रक्षा की जिम्मेदारियों का निर्वाह करता है । " बादशाह को कुछ समझ नहीं आया ।
बादशाह ने उन्हें दक्षिण भारत के एक हिंदू राजा पर चढ़ाई करने का आदेश दिया । रहीम अपने परम सखा कृष्ण को सर्वस्व अर्पित कर युद्ध के लिये तैयार हुए ।
उस राजा ने सुना था कि रहीम एक भावुक भक्त है, लेकिन युद्ध में उनका कौशल और पराक्रम देख वह दंग रह गया । अंत में राजा की पराजय हुई ।
उस राजा ने रहीम के पास संधि-प्रस्ताव और मित्रता करने के लिये दूत भेजा और स्वयं रहीम के पास आकर अनुनय-विनय की कि यहाँ से कूच करने से पूर्व वे उसके राजभवन आकर भोजन ग्रहण करें । रहीम ने इसे सहर्ष स्वीकार किया ।
संध्या के समय एक सिपाही को साथ लेकर उन्होंने राजप्रासाद की ओर प्रस्थान किया । जैसे ही वे किले के अंदर प्रवेश करने वाले थे उन्हें एक बालक की बड़ी प्यारी आवाज सुनाई दी । बालक ने उनका हाथ पकड़कर उनको खींचते हुए बाहर आने को कहा । जब वे बाहर आये तो बालक ने कहा---- " राजा के मन में घोर पाप है, वह षड्यंत्रकारी है । वह युद्ध के अपमान का बदला लेना चाहता है । उसने आपको मारकर आपकी सेना को यहाँ से भगाने के लिये भोजन में भयंकर विष मिला दिया है ।
रहीम ने बालक की बात का विश्वास नहीं किया और कहा--- " मैं तो भोजन करूँगा क्योंकि मैंने वचन दे रखा है । " लेकिन बालक हठ करने लगा कि वे वचन तोड़ दें और वापस चले जायें ।
अंत में रहीम ने कहा----- " क्योँ मैं तेरी बात मानूं, क्या तू मेरा भगवान श्रीकृष्ण है ? " उसने कहा-- "कहीं मैं तुम्हारा भगवान निकला तो ?" रहीम आश्चर्य से उसे निहारने लगे, वह बालक भगवान कृष्ण के रूप में प्रकट हो गया । भगवान ने कहा -- " अब तो नहीं जाओगे न ? " रहीम ने कहा-- " जैसी प्रभु की आज्ञा । " रहीम वापस आये और तुरंत सेना लेकर किले पर आक्रमण कर राजा को बंदी बना लिया । बंदी वेश में राजा ने सारा षड्यंत्र कबूल किया और कहा---- " मैं मृत्यु दंड का अधिकारी हूँ लेकिन मृत्यु से पूर्व आप इस गोपनीय भेद को जानने का रहस्य अवश्य बता दें । " रहीम ने सारी आपबीती कह सुनाई, राजा फूट-फूट कर रोने लगा कि इतने बड़े भक्त के साथ वह ऐसा जघन्य कृत्य करने जा रहा था, जिसका प्रायश्चित किसी भी लोक में संभव नहीं ।
भावुक ह्रदय रहीम ने राजा को न केवल प्राणदान दिया, बल्कि उसे अपना मित्र भी बना लिया ।
बचपन से रहीम प्रतिभा के धनी थे । वे औरों की सेवा-सहायता में निष्काम भाव से निरत रहते थे । वैराग्य और भक्ति ने उनको सर्वथा निडर, निर्भीक एवं पुरुषार्थी बना दिया था और इसी कारण अकबर ने उनको अपने नवरत्नों में शामिल किया था ।
एक दिन अकबर के दरबार में रहीम बैठे हुए थे । उस दिन वे अपने प्रभु कृष्ण के ध्यान में इतने डूब गये कि उन्हें इसका भान तक नहीं था कि दरबार में क्या हो रहा है । अकबर ने उन्हें आवाज दी तो जैसे वे ध्यान की गहराई से जाग पड़े और कहा--- " जी जहाँपनाह !"
अकबर बोले--- ' आप इतने अन्यमनस्क न रहा करें, कहीं कोई शत्रु इस मौके का लाभ उठाकर आप पर आक्रमण कर दे तो------- "। रहीम ने कहा---- " जो भगवान पर आश्रित होता है, भगवान उसकी रक्षा की जिम्मेदारियों का निर्वाह करता है । " बादशाह को कुछ समझ नहीं आया ।
बादशाह ने उन्हें दक्षिण भारत के एक हिंदू राजा पर चढ़ाई करने का आदेश दिया । रहीम अपने परम सखा कृष्ण को सर्वस्व अर्पित कर युद्ध के लिये तैयार हुए ।
उस राजा ने सुना था कि रहीम एक भावुक भक्त है, लेकिन युद्ध में उनका कौशल और पराक्रम देख वह दंग रह गया । अंत में राजा की पराजय हुई ।
उस राजा ने रहीम के पास संधि-प्रस्ताव और मित्रता करने के लिये दूत भेजा और स्वयं रहीम के पास आकर अनुनय-विनय की कि यहाँ से कूच करने से पूर्व वे उसके राजभवन आकर भोजन ग्रहण करें । रहीम ने इसे सहर्ष स्वीकार किया ।
संध्या के समय एक सिपाही को साथ लेकर उन्होंने राजप्रासाद की ओर प्रस्थान किया । जैसे ही वे किले के अंदर प्रवेश करने वाले थे उन्हें एक बालक की बड़ी प्यारी आवाज सुनाई दी । बालक ने उनका हाथ पकड़कर उनको खींचते हुए बाहर आने को कहा । जब वे बाहर आये तो बालक ने कहा---- " राजा के मन में घोर पाप है, वह षड्यंत्रकारी है । वह युद्ध के अपमान का बदला लेना चाहता है । उसने आपको मारकर आपकी सेना को यहाँ से भगाने के लिये भोजन में भयंकर विष मिला दिया है ।
रहीम ने बालक की बात का विश्वास नहीं किया और कहा--- " मैं तो भोजन करूँगा क्योंकि मैंने वचन दे रखा है । " लेकिन बालक हठ करने लगा कि वे वचन तोड़ दें और वापस चले जायें ।
अंत में रहीम ने कहा----- " क्योँ मैं तेरी बात मानूं, क्या तू मेरा भगवान श्रीकृष्ण है ? " उसने कहा-- "कहीं मैं तुम्हारा भगवान निकला तो ?" रहीम आश्चर्य से उसे निहारने लगे, वह बालक भगवान कृष्ण के रूप में प्रकट हो गया । भगवान ने कहा -- " अब तो नहीं जाओगे न ? " रहीम ने कहा-- " जैसी प्रभु की आज्ञा । " रहीम वापस आये और तुरंत सेना लेकर किले पर आक्रमण कर राजा को बंदी बना लिया । बंदी वेश में राजा ने सारा षड्यंत्र कबूल किया और कहा---- " मैं मृत्यु दंड का अधिकारी हूँ लेकिन मृत्यु से पूर्व आप इस गोपनीय भेद को जानने का रहस्य अवश्य बता दें । " रहीम ने सारी आपबीती कह सुनाई, राजा फूट-फूट कर रोने लगा कि इतने बड़े भक्त के साथ वह ऐसा जघन्य कृत्य करने जा रहा था, जिसका प्रायश्चित किसी भी लोक में संभव नहीं ।
भावुक ह्रदय रहीम ने राजा को न केवल प्राणदान दिया, बल्कि उसे अपना मित्र भी बना लिया ।
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