' सच्चा कर्मयोगी वही है, जो जीवन के विभिन्न कर्म करते हुए भी परमात्मा से कभी विलग नहीं होता । ' ईश्वर के साथ किसी तरह से जुड़कर कर्म करते हुए जीना यही कर्मयोग है ।
गुरु गोरखनाथ का जब उदय हुआ तो उनका नाम था-- अघोरवज्र । अघोर से गोरखनाथ पैदा हुए एवं वज्रयानी संप्रदाय के थे । उनके एक साथी थे-फेरुकवज्र । मुहम्मद गौरी की सेना ने आक्रमण किया एवं उत्तर से दक्षिण तक सब कुछ तहस-नहस करती हुई, देवालयों को तोड़ती हुई सोमनाथ व उड़ीसा के कोणार्क मंदिर तक पहुँच गई ।
उस समय योग एवं तंत्र की शक्ति में महारत रखने वाले ढेरों वज्रयानी, गोरखनाथ, फेरुकवज्र थे । तत्कालीन राजा तंत्र के टोटकों से प्रभावित हो यही समझ बैठे थे कि यही लोग मोरचा ले लेंगे, हमें लड़ने की जरुरत भी नहीं होगी । सेनाओं की छुट्टी कर दी गई । यही मान लिया कि तांत्रिकों और योगियों के बल पर यवन-शक-हूणों से जूझ लिया जायेगा । जब गजनवी आकर रौंद कर चला गया तब गोरखनाथ ने अपने से आयु व अनुभव में बड़े फेरुकवज्र से पूछा--- " आपका तप कहां चला
गया ? ज्ञान का क्या हुआ ? क्योँ नही जूझ पाये आप ? "
तब फेरुकवज्र बोले--- " योग व तंत्र की अपनी सीमा है । " ऐसे विपत्ति के समय में आवश्यकता आत्मबल संपन्न व्यक्तियों की, विजय की कामना रखने वालों की एवं कर्मयोगियों की होती है । गजनी के सैनिकों में गजब का आत्मविश्वास था, विजय की कामना थी । जब कर्मयोगी जिजीविषा संपन्न व्यक्ति एक साथ होते हैं, तो समूह मन का निर्माण करते हैं । इस समूह मन के सामने तंत्र और योग एक तरफ रखा रह गया और उनकी दुर्दांत इच्छा शक्ति काम करती चली गई । "
आगे जब भी जमाना बदलेगा समूह मन के जागरण से ही बदलेगा ।
हमें कर्मयोगी ही होना चाहिए । अच्छाई को, कर्मयोगियों को संगठित होना पड़ेगा तभी बुराई पर विजय संभव है ।
गुरु गोरखनाथ का जब उदय हुआ तो उनका नाम था-- अघोरवज्र । अघोर से गोरखनाथ पैदा हुए एवं वज्रयानी संप्रदाय के थे । उनके एक साथी थे-फेरुकवज्र । मुहम्मद गौरी की सेना ने आक्रमण किया एवं उत्तर से दक्षिण तक सब कुछ तहस-नहस करती हुई, देवालयों को तोड़ती हुई सोमनाथ व उड़ीसा के कोणार्क मंदिर तक पहुँच गई ।
उस समय योग एवं तंत्र की शक्ति में महारत रखने वाले ढेरों वज्रयानी, गोरखनाथ, फेरुकवज्र थे । तत्कालीन राजा तंत्र के टोटकों से प्रभावित हो यही समझ बैठे थे कि यही लोग मोरचा ले लेंगे, हमें लड़ने की जरुरत भी नहीं होगी । सेनाओं की छुट्टी कर दी गई । यही मान लिया कि तांत्रिकों और योगियों के बल पर यवन-शक-हूणों से जूझ लिया जायेगा । जब गजनवी आकर रौंद कर चला गया तब गोरखनाथ ने अपने से आयु व अनुभव में बड़े फेरुकवज्र से पूछा--- " आपका तप कहां चला
गया ? ज्ञान का क्या हुआ ? क्योँ नही जूझ पाये आप ? "
तब फेरुकवज्र बोले--- " योग व तंत्र की अपनी सीमा है । " ऐसे विपत्ति के समय में आवश्यकता आत्मबल संपन्न व्यक्तियों की, विजय की कामना रखने वालों की एवं कर्मयोगियों की होती है । गजनी के सैनिकों में गजब का आत्मविश्वास था, विजय की कामना थी । जब कर्मयोगी जिजीविषा संपन्न व्यक्ति एक साथ होते हैं, तो समूह मन का निर्माण करते हैं । इस समूह मन के सामने तंत्र और योग एक तरफ रखा रह गया और उनकी दुर्दांत इच्छा शक्ति काम करती चली गई । "
आगे जब भी जमाना बदलेगा समूह मन के जागरण से ही बदलेगा ।
हमें कर्मयोगी ही होना चाहिए । अच्छाई को, कर्मयोगियों को संगठित होना पड़ेगा तभी बुराई पर विजय संभव है ।
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