भगवती कात्यायनी के मंदिर की विशेष साज-सज्जा की गई थी क्योंकि युवराज आदित्य सेन दर्शनार्थ आने वाले थे । आदित्य सेन मंदिर के सामने आकर रुके । चरण पादुकाएँ उन्होंने द्वारपाल चित्रक के संरक्षण में छोड़ी और स्वयं देवी के दर्शन के लिए मंदिर में प्रवेश कर गये ।
चित्रक ने देखा कि युवराज की रेशम मढ़ी हुई पादुकाओं में ओस के कण के साथ कुछ धूल-कण भी आ गये हैं, उसने उन्हें उठाकर अपने अँगोछे से पोछ देने का प्रयत्न किया । द्वारपाल का वस्त्र मैला था, उससे पादुकाएँ और मैली हो गईं ।
युवराज दर्शन करके बाहर लौटे तो पादुकाएँ देखकर उनकी भौंहे तन गईं । कड़ककर पूछा-- " किसने मैली की ये पादुकाएँ ? " चित्रक भयभीत हो उठा, बोला-- " क्षमा करें महाराज, यह भूल------- " ।
वाक्य जब तक पूरा हो चित्रक के कपाल पर उसी पादुका का तीव्र प्रहार हुआ, मस्तक फट गया, रक्त बहने लगा । आदित्य सेन को थोड़ी भूल भी सहन नहीं हुई । युवराज राजभवन चले गये और चित्रक अपमानित, प्रतिशोध की ज्वाला में जलता हुआ घर पहुंचा ।
कई दिन तक उसने अन्न, जल नहीं लिया, वह युवराज से बदला लेना चाहता था । चित्रक की पत्नी ने समझाया---- " स्वामी ! प्रतिशोध की भावना अग्नि की तरह है, वह जहाँ भी रहती है, जलाती और नष्ट करती है । यदि आपको युवराज से बदला ही लेना है, तो उसका उपयुक्त मार्ग मैं बताती हूँ, आप मलिनता का त्याग कर स्वस्थ हों । "
चित्रक की पत्नी ने प्रबंध-व्यवस्था कर चित्रक को विद्दा-अध्ययन के लिए वाराणसी भेज दिया ।
भगवान विश्वनाथ के चरणों की छाया में चित्रक ने दस वर्षों तक कठोर विद्दा-अध्ययन किया, जब वे वाराणसी से लौटे तो उनके पांडित्य की ख्याति सारे देश में फैल गई थी, अब वे चित्रक से आचार्य चित्रक बन गये थे । युवराज भी अब महाराज आदित्य सेन हो गये थे । उन्होंने राजमाता के स्वास्थ्य के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया, उसका ब्रह्म चित्रक कों नियुक्त किया गया ।
उन दिनों आचार्य को लोग महाराजाओं से अधिक सम्मान देते थे । चित्रक चाहते तो आदित्य सेन से बदला ले सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और आदित्य सेन से पुरानी चरण पादुकाएँ मांग लीं और प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगे । एक दिन आदित्य सेन ने पूछा--- " आचार्य प्रवर ! पुरानी पादुकाएँ भी कोई पूजा की वस्तु हैं, उन पादुकाओं से आपका लगाव समझ में नहीं आया ? "
चित्रक ने कहा-- " महाराज ! इनकी कृपा से ही मैं इस पद पर विभूषित हूँ । आपने एक दिन यही पादुकाएँ मेरे सिर पर मारी थीं, मैं प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था, संभव था आवेश में मुझसे कोई अपराध हो जाता । मेरी पत्नी ने मुझे विद्दा-अध्ययन के लिए वाराणसी भेज दिया, उसी का परिणाम है कि आप का द्वारपाल आज इस यज्ञ का ब्रह्म है । "
इस विलक्षण प्रतिशोध से आदित्य सेन पराभूत हो उठे, उन्होंने चित्रक का बड़ा सम्मान किया और उन्हें राजपुरोहित का पद प्रदान किया ।
चित्रक ने देखा कि युवराज की रेशम मढ़ी हुई पादुकाओं में ओस के कण के साथ कुछ धूल-कण भी आ गये हैं, उसने उन्हें उठाकर अपने अँगोछे से पोछ देने का प्रयत्न किया । द्वारपाल का वस्त्र मैला था, उससे पादुकाएँ और मैली हो गईं ।
युवराज दर्शन करके बाहर लौटे तो पादुकाएँ देखकर उनकी भौंहे तन गईं । कड़ककर पूछा-- " किसने मैली की ये पादुकाएँ ? " चित्रक भयभीत हो उठा, बोला-- " क्षमा करें महाराज, यह भूल------- " ।
वाक्य जब तक पूरा हो चित्रक के कपाल पर उसी पादुका का तीव्र प्रहार हुआ, मस्तक फट गया, रक्त बहने लगा । आदित्य सेन को थोड़ी भूल भी सहन नहीं हुई । युवराज राजभवन चले गये और चित्रक अपमानित, प्रतिशोध की ज्वाला में जलता हुआ घर पहुंचा ।
कई दिन तक उसने अन्न, जल नहीं लिया, वह युवराज से बदला लेना चाहता था । चित्रक की पत्नी ने समझाया---- " स्वामी ! प्रतिशोध की भावना अग्नि की तरह है, वह जहाँ भी रहती है, जलाती और नष्ट करती है । यदि आपको युवराज से बदला ही लेना है, तो उसका उपयुक्त मार्ग मैं बताती हूँ, आप मलिनता का त्याग कर स्वस्थ हों । "
चित्रक की पत्नी ने प्रबंध-व्यवस्था कर चित्रक को विद्दा-अध्ययन के लिए वाराणसी भेज दिया ।
भगवान विश्वनाथ के चरणों की छाया में चित्रक ने दस वर्षों तक कठोर विद्दा-अध्ययन किया, जब वे वाराणसी से लौटे तो उनके पांडित्य की ख्याति सारे देश में फैल गई थी, अब वे चित्रक से आचार्य चित्रक बन गये थे । युवराज भी अब महाराज आदित्य सेन हो गये थे । उन्होंने राजमाता के स्वास्थ्य के लिए एक यज्ञ का आयोजन किया, उसका ब्रह्म चित्रक कों नियुक्त किया गया ।
उन दिनों आचार्य को लोग महाराजाओं से अधिक सम्मान देते थे । चित्रक चाहते तो आदित्य सेन से बदला ले सकते थे, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया और आदित्य सेन से पुरानी चरण पादुकाएँ मांग लीं और प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगे । एक दिन आदित्य सेन ने पूछा--- " आचार्य प्रवर ! पुरानी पादुकाएँ भी कोई पूजा की वस्तु हैं, उन पादुकाओं से आपका लगाव समझ में नहीं आया ? "
चित्रक ने कहा-- " महाराज ! इनकी कृपा से ही मैं इस पद पर विभूषित हूँ । आपने एक दिन यही पादुकाएँ मेरे सिर पर मारी थीं, मैं प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था, संभव था आवेश में मुझसे कोई अपराध हो जाता । मेरी पत्नी ने मुझे विद्दा-अध्ययन के लिए वाराणसी भेज दिया, उसी का परिणाम है कि आप का द्वारपाल आज इस यज्ञ का ब्रह्म है । "
इस विलक्षण प्रतिशोध से आदित्य सेन पराभूत हो उठे, उन्होंने चित्रक का बड़ा सम्मान किया और उन्हें राजपुरोहित का पद प्रदान किया ।
No comments:
Post a Comment