एक संत थे, वे जनता को धार्मिक उपदेश दिया करते थे | यह कार्य वह बिना किसी लाभ की आशा के करते थे और अपना जीवन निर्वाह टोपियाँ सीकर, बेचकर करते थे । नित्य के व्यय के पश्चात भी एक पैसे की बचत हो जाती थी जिसे वे दान कर दिया करते थे ।
उसी नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ जी संत का प्रवचन सुना करते थे और उनकी गतिविधियों को निकट से देखा करते थे । उन्होंने देखा कि साधु नित्य एक पैसे का दान करता है, उन्हें भी दान की प्रेरणा मिली । उन्होंने भी धर्मखाते के लिए निश्चित धन निकालना प्रारंभ किया जब पांच सौ रूपये हो गये तो संत से पूछा--- इसका क्या करूँ ? संत ने कहा--- " जिसे तूम दीन-हीन समझते हो उसे दान कर दो । सेठजी गये, उन्होंने देखा एक दुबला-पतला, भूख से पीड़ित अंधा मनुष्य जा रहा है, सेठ ने उससे कहा--- " सूरदास जी ! ये सौ रुपये लो, इनसे भोजन, वस्त्र, आवश्यक वस्तुएं लेना ।
अंधा आशीर्वाद देकर चला गया । सेठ को न जाने क्या सूझा वे उसके पीछे-पीछे चले ।
उन्होंने देखा उस अंधे ने उन रुपयों से खूब मांस खरीद कर खाया, शराब पी, जुए के अड्डे पर जाकर जुआ खेला, नशा चढ़ा तो वह सब रूपये हार गया, जुए के अड्डे वाले ने उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया , सेठ को बड़ी ग्लानी हुई । उन्होंने साधु से सब कह सुनाया ।
संत मन ही मन मुस्कराए और अपना बचाया हुआ एक पैसा देकर कहा-- " आज इसे किसी जरुरतमंद को दे देना और कल अपनी बात का उत्तर ले जाना । सेठजी ने आगे जाकर एक दीन-दरिद्र को वह पैसा दे दिया और उसके पीछे हो लिए ।
उन्होंने देखा उस व्यक्ति ने थोड़ी दूर जाकर अपनी झोली में एक एक चिड़िया निकाल कर उड़ा दी और एक पैसे के चने खरीद कर खाकर तृप्त होकर आगे चला , सेठजी ने पूछा उसने ऐसा क्योँ किया, तब वह व्यक्ति बोला--- " मैं कई दिनों से भूखा था, कुछ न पाकर यह चिड़िया पकड़ लाया था कि भून कर खा लूँगा किंतु अब आपने एक पैसा दे दिया तो प्राणी की हत्या क्योँ करूँ ? इतना अन्न मिलने से संतोष हो गया । "
सेठ ने यह घटना भी संत को सुना दी और दोनों घटना में अंतर का कारण पूछा ।
संत बोले--- " वत्स ! महत्ता केवल देने भर की नहीं होती । हमने जो धन दान में दिया , वह किन साधनों द्वारा प्राप्त किया है ? इसकी भी भावना उस धन के साथ जुड़ जाती है । तुम्हारा अनीतिपूर्वक बिना परिश्रम के कमाया गया धन पाकर उसने सौ रूपये भी अनीति के कार्यों में लगाये, अत: तुम्हे उस उस उपयोगकर्ता के अनुरूप पाप ही लगेगा और मेरा एक पैसा परिश्रम से कमाया हुआ था, जिसके पास गया सद्बुद्धिपूर्वक ही व्यय किया गया । "
सेठ की समझ में तथ्य आ गया और उसने उस दिन से व्यापार ईमानदारी के साथ करना प्रारंभ कर दिया ।
उसी नगर के एक प्रतिष्ठित सेठ जी संत का प्रवचन सुना करते थे और उनकी गतिविधियों को निकट से देखा करते थे । उन्होंने देखा कि साधु नित्य एक पैसे का दान करता है, उन्हें भी दान की प्रेरणा मिली । उन्होंने भी धर्मखाते के लिए निश्चित धन निकालना प्रारंभ किया जब पांच सौ रूपये हो गये तो संत से पूछा--- इसका क्या करूँ ? संत ने कहा--- " जिसे तूम दीन-हीन समझते हो उसे दान कर दो । सेठजी गये, उन्होंने देखा एक दुबला-पतला, भूख से पीड़ित अंधा मनुष्य जा रहा है, सेठ ने उससे कहा--- " सूरदास जी ! ये सौ रुपये लो, इनसे भोजन, वस्त्र, आवश्यक वस्तुएं लेना ।
अंधा आशीर्वाद देकर चला गया । सेठ को न जाने क्या सूझा वे उसके पीछे-पीछे चले ।
उन्होंने देखा उस अंधे ने उन रुपयों से खूब मांस खरीद कर खाया, शराब पी, जुए के अड्डे पर जाकर जुआ खेला, नशा चढ़ा तो वह सब रूपये हार गया, जुए के अड्डे वाले ने उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया , सेठ को बड़ी ग्लानी हुई । उन्होंने साधु से सब कह सुनाया ।
संत मन ही मन मुस्कराए और अपना बचाया हुआ एक पैसा देकर कहा-- " आज इसे किसी जरुरतमंद को दे देना और कल अपनी बात का उत्तर ले जाना । सेठजी ने आगे जाकर एक दीन-दरिद्र को वह पैसा दे दिया और उसके पीछे हो लिए ।
उन्होंने देखा उस व्यक्ति ने थोड़ी दूर जाकर अपनी झोली में एक एक चिड़िया निकाल कर उड़ा दी और एक पैसे के चने खरीद कर खाकर तृप्त होकर आगे चला , सेठजी ने पूछा उसने ऐसा क्योँ किया, तब वह व्यक्ति बोला--- " मैं कई दिनों से भूखा था, कुछ न पाकर यह चिड़िया पकड़ लाया था कि भून कर खा लूँगा किंतु अब आपने एक पैसा दे दिया तो प्राणी की हत्या क्योँ करूँ ? इतना अन्न मिलने से संतोष हो गया । "
सेठ ने यह घटना भी संत को सुना दी और दोनों घटना में अंतर का कारण पूछा ।
संत बोले--- " वत्स ! महत्ता केवल देने भर की नहीं होती । हमने जो धन दान में दिया , वह किन साधनों द्वारा प्राप्त किया है ? इसकी भी भावना उस धन के साथ जुड़ जाती है । तुम्हारा अनीतिपूर्वक बिना परिश्रम के कमाया गया धन पाकर उसने सौ रूपये भी अनीति के कार्यों में लगाये, अत: तुम्हे उस उस उपयोगकर्ता के अनुरूप पाप ही लगेगा और मेरा एक पैसा परिश्रम से कमाया हुआ था, जिसके पास गया सद्बुद्धिपूर्वक ही व्यय किया गया । "
सेठ की समझ में तथ्य आ गया और उसने उस दिन से व्यापार ईमानदारी के साथ करना प्रारंभ कर दिया ।
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